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________________ ४१४ अपना राज्य खोय, दुःखी होवै। अपने सेवक, मित्र, प्रजा के लोग इनके स्वभाव कुं जाने। जो ये बुरा है। ये भला है। ये दुष्ट अङ्गी है। ये सजन अङ्गी है। ये गुण-लोभी है। ये सत्यवादी है। ये झूठा है। ये स्वभाव का धरनहारा है। ये पराया बुरा करनहारा, जुगल है। ये पर के भले का करनहारा है। यह यश का लोभी है। ये धन का लोभी है। ये चोर स्वभावी है। यह क्रोधी है। ये मानो है। यह दगाबाज-मायावी है। यह सरल स्वभावी है। यह चित्त का उदार है ! यह सूम है। यात मोकौं सुख है। यात मोकों निन्दा आवै है। यातें मेरा यश होय हैं। यह पर कौं पोड़ें है। ये पर का रक्षक है इत्यादिक विवेक-विद्या, राज-पुत्रन कौं सीखना सुखकारी है। याका नाम आनीष की विद्या है। इस विद्या का ज्ञान होय, तो अपने ज्ञान-बल तै. कठोर चित्ती है तिनकों कोमल करै। यहां प्रश्न—जो कठोर स्वभावी है तिनकों कोमल स्वभावो कैसे करे ? ताका तौ स्वभाव ही कठोर है, सो वस्तु का स्वभाव कैसे मिटे है ? ताका समाधान—जैसे--पृथ्वीकाय स्वर्ण, चाँदी, तावा, पीतल, लोहादि अनेक धात करि, अनेक पग है। मोर्वहीन लोग हैं। बोकारोगर, इन धातून की कठोरता जानि. प्रथम तौ अग्नि मैं तपाव है। पीछे धन तें, हथौड़े से कटै है । बहुरि तपावें है। ऐसे करते, कछु नरम पड़े है। तब छोटी हथौडी ते अल्प पीट है। ऐसे सख्त, महाकठोर धातु भी विवेको के हाथ पड़े है, तब नर्म होय है। तेसे ही दुष्ट मनुष्य है, सो महाकठोर है। तिनकौं विवेको राजा, अपनी न्याय बुद्धि के बल करि उनकी, उन योग्य कठोर दण्ड ही देय है। तब दुष्ट प्राणी भी, राजा के दोघं भय करि अपनी कठोरता तजि कोमलता रूप होय हैं। पीछे तिनकौं भला निमित्त मिले, तो वे भी अपना भला करें हैं। ऐसे यह आनीष की विद्या है सो महान वंश में उपजे जो विवेको राजा, तिनके सीखने योग्य है ।। आगे दूसरी त्रयी विद्या । सो विवेको राजा शास्वन के वेत्ता. जान्या है इस भव-पर-भव सुधरने का भेद जिननें, सो महान बुद्धि धर्म-शास्त्र के वेत्ता पाप-पुण्य के फल को जानि आप पाप तजि अनेक धर्म अङ्ग दान-पूजादि तिन रूप परिशमैं और जिन क्रियान तैं पाप बधै हिंसा होय दुराचार प्रगटै ऐसी क्रिया अपने मुल्क में नहीं होने देंय । अनेक पाय क्रिया अज्ञानी जीवन के करने को जिनकी । करि भोले जीव अपना भव बिगा.। कुक्रिया करें जीव हिंसा होय । इत्यादिक पाप प्रवृत्ति को जानि विवेकी राजा आप तजै और पर के कल्याण की पाप करते तिनको मनै करें। अपनी प्रजा पाप रूप प्रवर्ते ताकौ दराड ४५४
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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