SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुतला निकसे सो संख्यात योजन अढ़ाई द्वीप प्रमाण क्षेत्र लम्बे आत्म प्रदेश होय। अरु सूच्यांगुल के संख्यात भाग चौड़े ऊँचे विस्तार धरे हैं। शुक्रलेश्या बिना इन लेश्यान में केवल समुद्घात होता नाहीं। इति आहारक समुद्घात । आगे केवल समुद्रात विशेष कहिय है। शुक्रलेश्या मैं और समुद्रात तो पूर्ववत जानना। केवल समुद्घात का विशेष है। सो कहिये है-तहाँ केवल समुद्घात के च्यारि भेद हैं । दण्ड कपाट प्रतर लोकपूर्ण । तही दण्ड के दोय भेद हैं—एक स्थितिदण्ड एक उपविष्टदण्ड और प्रतर व लोकपूर्ण इनका एक-एक ही भेद है। तहाँ पनासन सहित दण्ड समुद्घात होय सो स्थिति दण्ड समुद्धात है। कायोत्सर्ग आसन सहित दण्ड होय सो उपविष्टदण्ड है। तहाँ स्थितिदण्ड समुद्रात में एक जीव अपेक्षा प्रदेशन का विस्तार--बातबलय बिना लोक की ऊँचाईं प्रमाण है। सो किंचिद् घाटि चौदह राजू प्रमाण तौ लांब होय है। बारह अंगुल प्रमाण चौड़ा गोलाकार प्रदेश हो है। उपविष्ट दण्ड समुद्रात विर्षे लम्बाई तौ पूर्ववत् हो है। चौड़ाई स्थिति दण्डत तिगुशी छत्तीस अंगुल प्रमाण गोलाकार दण्ड हो है। ऐसा तो समुद्घात कह्या। आगे कपाट समुद्घात के च्यारि भेद हैं। पूर्वाभिमुख स्थिति कपाट, उत्तराभिमुख स्थितिकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट. तहाँ उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट पूर्वदिशामुख सहित केवली पद्मासन होघ कपाट करें, सो पूर्वाभिमुख स्थिति कपाट, कहिए। तहाँ इस कपाट मैं आत्मा के प्रदेश वातवलय बिना लोक प्रमाण कछू घाटि चौदह राजू तो लम्बे हैं। उत्तर-दक्षिण दिशा विष लोक की चौड़ाई प्रमाण सात राज चौड़े हैं। पूर्व-पश्चिम दिशा विष बारह अंगुल मोटाई लिये ऊंचे हैं। ऐसे पूर्वाभिमुख स्थिति कपाट समुद्रात जानना। पूर्वदिशा मुख किरा केवलज्ञानो कायोत्सर्ग जासन सहित कपाट समुद्धात करें, सो पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट समुद्रात कहिए। तहाँ एक जीव अपेक्षा प्रदेशन की लम्बाई कघाटि चौदह राज़ हैं। चौड़ाई सात राज और छत्तीस अंगुल मोटाई प्रमाण प्रदेश ऊँचे हैं। ऐसे पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट समुदुधात है तथा उत्तराभिमुख स्थिति कपाट समुद्घात ताकौ कहिर है, जहाँ उत्तर दिशा मुख किए केवली पद्मासन सहित कपाट समुद्घात करें सो कछूघाटि चौदह राजू लम्बे आत्म प्रदेश होय हैं। पूर्व-पश्चिम दिशा विर्षे अधोलोक नीचे सात राजू आत्म प्रदेश चौड़े होय हैं, अरु ऊपरि क्रमत घटते-बधते मध्यलोक में एक राज मोटे पीछे ऊपरि क्रमतें बढ़ते-बढ़ते ब्रह्म स्वर्ग पर्यन्त पाँच राज, उपरि क्रमत
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy