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भाव कब प्रकट होयगे? इत्यादिक समता सहित धर्म्य-ध्यान बढ़ावे रूप धर्म-रक्षा रूप बारम्बार विचार का होना, सौ अपाय-विचय-धर्म्यध्यान है। पूर्व पुण्यके उदय करि प्रगटी जो अनेक सम्पदा. अनेक पंचेन्द्रिय जनित भोग सुख, तिनक पाय धर्मात्मा हर्ष नहीं करें, मगन नहीं होय और ऐसा विचारें, जो मैं या संसार मैं भ्रमण करते अनेक बार नरकादिक, तिथंचादि, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि के महादुःख मैंने अनेक बार भोगे, अनेक बार पश होय, मनुष्य होय घर-घर बिक्यौ । मुख सही। अनेक बार वनस्पति में राति कटि के परन्ताराम होय विवौइत्यादिक अनेक आपदा का भोगनहारा मैं संसारी जीव, सा कोई किचित पुण्य के उदय देव, इन्द्र, चक्री, विद्याधर, मण्डलेश्वर इत्यादिक विभूति, पंचेन्द्रिय सुम्स मोकूआय मिले हैं। सो यह सुख-सम्पदा कर्म की करी है। सो सर्व चपल है। अपना अल्पकाल उदय करि जाते रहेंगे। ऐसा जानिकै सम्यक धन-धारी, भोगरक्त चित्त नहीं करै। मगन नहीं होय, सो विपाकविचय-धHध्यान है तथा अपने कोई पाप के उदय ते अनेक दुख, संकट, आपदा, वेदना, शरीर आई होय । तो ज्ञाता पुरुष असाता नहीं करै दुख नहीं मानें। ऐसा विचारै, जो मैं पूर्व भव मैं देव राजादिक के अनेक पंचेन्द्रिय सुख भोगे, कामदेव समान शरीर सम्पदा भोगी है। अब कोई किंचित् पाप-कर्म के उदय मोकों तन पीड़ा वेदना भई है। सो आप हो जपना रस देय, खिर जायगी। इत्यादिक शुभ विचार करि खेद नहीं करे। ऐसे ही साता के उदय सुख नाहीं मान। असाता के उदय दुखी नहीं होय । ऐसे विचार का नाम विपाक-विचयधार्य ध्यान कहिये ।३। स्थान, जो तीनों लोक के आकार का विचार । जो ए तीन लोक पुरुषाकार है। अनादिनिधन है । षट् द्रव्यनते भरथा, च्यारि गति जोवन का स्थान तहां संसारो प्राणी शुमाशुभ भावन का फल भोगता तन धरता. तजता, अनन्तकाल का भ्रमण करता सुख-दुख भाव करे है। ताही के फल फिर जन्म-मरण बढ़ावै है। राग-द्वेष भाव तजि कर्म नाश मोक्ष होवे, सो लोक के सोश सिद्ध होय विराजे हैं। वे सिद्ध भगवान् जगत् दुखते रहित हैं। जन्म-मररा संसार भ्रमण र सर्व दोष धांड़ि, सूखी होय हैं। ते सिद्ध दो प्रकार है। जो च्यारि घातिया-कर्म रहित, केवलज्ञान सहित, अनन्त सुखी, समोशरण सहित, अनेक लक्षणों से मण्डित, परम औदारिक के धारक सो तौ सकल सिद्ध हैं और ज्ञानावरणादि अष्ट-कर्म रहित, अमर्ति, चेतन, शुद्धात्मा सो अकल सिद्ध हैं।