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________________ बी सु K २२७ नाई नाता - सगाई को बुद्धि राखते होय, इत्यादि कुप्रचार सहित जो होंय और आपको गुरु मनाय पुजावें, सो ऐसे गुरु की पूजा करनी, सो कुपूजा है और एकेन्द्रिय घास- वृक्षन की पूजा करनी, सो कुपूजा है। भूमि-पूजा, अग्रि पूजा, जल का पूजन, अन्न की पूजा कुपूजा जानना । इहाँ प्रश्न – जो इनका पूजन क्यों निषेधा ? इनमें तौ देवत्व-भाव प्रगटपने दोखें है। देखो अन्न अरु जल है, सो तो पर्व जगत्-जीवन की रक्षा का आधार इन बिना प्राण रहें नाहीं । तातें सर्व का रक्षक दैव जानि पूजना योग्य दोखे है और अग्नि है सो याका तेज प्रताप प्रत्यक्ष दोखे है । इस अग्नि करि अनेक कार्य की सिद्धि होय है। अन्नादिक का पंचावना इसही तैं होय है और अनेक अलौकिक कार्य अनि तैं होते दोखें हैं। तातें या मैं भी देवत्व-भाव भासे है। वनस्पति है सो वृक्षादिक तौ सर्व जीवन को रत्ता सुखको छाया करें हैं और धरती है सो प्रत्यक्ष धीरजता लिए सर्व जगत् का भार सह है । कोई तो धरती को खोदें हैं। कोई यावे अग्नि प्रजालें हैं। कोई घायें कूड़ा डारे हैं। केई मलमूत्रादि डारें हैं इत्यादिक जगत्-जीव उपद्रव करें हैं। परन्तु धरती काहूतें द्वेष नहीं करे है। ऐसी वीतराग दशा धरै है । तातैं प्रत्यक्ष देवता है। ऐसा जानि पूजिये है। ताका समाधान भो भोले ! सरल परिणामी सुनि ! हे भव्य ! चित्त देय के धारन करना। जो पदार्थ जगत् मैं पूज्य है, बड़ा है, श्रेष्ठ है। ताका अविनय कोई करें भी, तो कदाचित् भी नहीं होय है। या लौकिक प्रवृत्ति अनादि काल को तीन लोक मैं चली आयें है। जो पूज्य हैं ताका अविनय जो करे, सो ताकूं महापापी कहें हैं। तातें हे भाई! तूं देखि अन्न अरु वनस्पति का तौ सर्व भक्षण करें हैं और जलकौं पीवे हैं, डाले हैं, हाथ-पांवन तैं मर्दन करें हैं। कोई अन्न पोसे है। कोई वनस्पति छेदन करें हैं। इत्यादिक क्रिया होतें, विनय सधता नाहीं । तौ पूज्यपद कैसे सम्भवे ? अग्रिक जलाइए, बुझाइए, पीटिए, दाबिरा, हाथ-पांव के नीचे मसलिए, इत्यादिक अविनय होय है और सबतें होन मनुष्य होय, सौ भी इनका अविनयरूप परिणमैं है । तातें इनमें देवत्व भाव नाहीं ये कर्म योगर्तें एकेन्द्रिय भये हैं। सी पूर्वला पाप का फल भोग हैं। महाअविनय अनादर के स्थान भरा हैं। तातैं भव्य ऐसा जानि । अविनय का स्थान जो वस्तु होय सो पूज्य नाहीं । तांतें इनकी पूजा है, सो कुपूजा है । इत्यादिक ऊपर कहै जे स्थान सो सम्यक्त्व भाव मैं हेय कहे हैं। इति कुपूजा ऐसे सुप्रजा कुपूजा मैं ज्ञेय-य-उपादेय कथन । २२७ त रं 人ㄉG गि णी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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