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तब ये अपने को मूर्ख जानि, कालिका देवी के मठ में, अधोमुन जाय पर चा। कही मोय विद्या-वर देहू, नहीं तो || मैं मरि हौं। तब सातवें दिन, देवी प्रसन्न भई। वांच्छित वर दिया। कही-तेरा नाम कवि-कालिदास हो और वचन-सिद्ध वर दिया सो देवी के प्रसाद ते, अनेक विद्या-शब्द स्फुरे। ताकरि सर्व पण्डित मोते। तब सबने । कही-विद्या कहां पाई ? तब यानें कही-कालिका देवो के पास पाई। तब वररुचि याके पायन परचा। कही-मेरी कन्या धन्य है । याके वचन, सत्य हैं। अब ये कालिदास प्रगट भश। सो एक दिन राजा भोज की सभा में जाय, कालिका • अाराधी सो सर्व सभा कालिका को देख, नमस्कार करि, कालिदास की प्रशंसा करती मई। ऐसे काजिदार यसिद्ध भगा सुदत सेठ, थाही उजनी नगरी में रहै । सो महाधर्मात्मा, ताके मनोहर नाम पुत्र था सो एक दिन सेठ, पुत्र सहित, राजा भोज में गया। तब राजा ने सैठ ते पूछी। तिहारा पुत्र कहा पढ़या है? तब सेठ कही भो नाथ ! नाममाला ग्रन्थ, अर्थ सहित पढ़या। तब भोजराज कहीनाममाला का कर्ता कौन ? तब सैठ कही–धनञ्जय नाम महापण्डित है। तब राजा कही–धनञ्जय तें मिलानो। | सो राजा-भोज महापण्डित, गुणीजन का दास, सो धनजय फू' बुलाया। आदर सहित राजा ने भले मनुष्य भेजे। तब कालिदास बोल्था। हे राजन् । धनजय, कधू समझता नाहीं। जब धनञ्जय-कवि आया, तब राजा ने धनन्जय कू,ऊँचे आसन पर बैठक दई और कही–तुम्हारा नाम बड़ा। सो कौन ग्रन्थ किये ? तब धनजय कहीभो राजेन्द्र! मेरे किये ग्रन्धमैं, इन पण्डितों ने मेरा नाम लोप, अपना नाम धरचा है। तब भोजराज ने, पण्डितों को उलाहना दिया, कि तुम काहे के परिडत हो। तब सर्व पण्डितों ने कही-मो राजन् ! यह धनञ्जय कब का पण्डित है। याका गुरु तौ, मानतुङ्ग मुनि है । जो महामूर्ख है। या विद्या, कहाँ तै बाई ? याका गुरु अब भी वन में है। सो जाय, हम तें वाद करें। तब धनक्षय कही-भी पण्डित हो! गुरु का नाम तौ, उत्तम गुण-रूप है सो वै वहीं विराज रहैं। परन्तु तुम्हारे वाद की इच्छा होय. तो मौतें वाद करौ। तब इनमें परस्पर वाद होता भया। सो अनेक नय, दृष्टान्त, प्रश्नोत्तर करि कालिदास आदि सर्व परिडतों कू राजा भोज की सभा मैं धनजय ने जोत्या। सब वचन-बद्ध भये। तब कालिदास कोप करि बोल्या। हे राजन! यह महामूर्ख है। सो यातें कहा कहा वाद करें। याका गुरु मानतुङ्ग है। सो ताकौं बुलाइये, तातें वाद करेंगे। तब राणा ने अपने भले मनुष्य