SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1३५९ । भारति सो ही भई अगनिः सो इस अगनि करि जल्या पुरुषक, बड़ा दुःख होय। सो इस आरति को कैसे | जानिए ? सो कहिरा है। एकान्त बैठना, आरतिवाले कु मनुष्यन की भीड़ अच्छी नाही लागै है। तातै इकला, | राकान्त स्थान में बैठे और की बात नहीं सुहावै। शोर होय-बहुत जन बतलावते होंय, सो नहीं सुहावै। चित्त उदास रहै। खान-पान की अभिलाषा नहीं होय । भोगन में रक्त-भाव नहीं होय । पुरुषारथ की अति मन्दता होय । आलस भाव शरीर में प्रमाद होय। इत्यादिक र भात-भाव हैं। सो सर्व पाप-बन्ध के कारण हैं। तातें इसे आरति अग्नि का दुःख विशेष है। यह दूसरी आरति-अग्नि है। २। तीसरी छैगा-लकड़ी की अग्नि है। सो इस अग्नि के सर्व सारी जाने और जाने नील दुम रहा है।३। रोसे श तीन अग्नि हैं। तिनमें शोक-अनि अरु आत-अग्नि, इन दोय अग्नि को मोही जीव, ज्ञान की मन्दता से नहीं जान हैं और ए दो अग्नि जो दाह-दुःसा करें हैं । ताकौं भी अज्ञानता की विशेषता से नहीं जानें हैं और जे जिन देव की आज्ञा प्रमाण चलनेहारे, तत्त्व-श्रद्धानी, शुभाशुभ भाव विकल्प के रहस्य जाननेहारे, समदृष्टि जानी है, आत्म-काया न्यारीन्यारी जिनने। तिन मिथ्या परिणतिजारी, सदैव अनुप्रेक्षा के चिन्तनहारे, जगत् दशा तै उदासी, अल्पकाल में जे जीव शिव जासो जे अनुभव रस के भोगी हैं, ते इन दोऊ अग्नि के भेद-भाव जाने हैं। सो काष्ठ-लकड़ी की जो उपल अग्नि है। लो तो ऊपर तें सन कौं जार है और रा दोऊ शोक व आत-अग्नि हैं। सो अन्तरङ्ग में मात्मा के प्रदेश में दाह उपजाय, मन को सदेव दाह करें और काष्ठ आदि की अग्नि का अल्या तो एक भव में दुःख पावै। परन्तु शोक व आर्त्त-अग्नि का जल्या, भव-भव वि दुख पावै। तात जे विवेकी हैं तिन्हें समतारूपी शोतल-जल लेय करि, शोकादि-अग्नि को बुझावना योग्य है। इन दोऊ अग्नि के जले भवान्तर में दुःख पावें। रोसा जानि शोक आरति तजना सुखकारी जानना। आगे विद्यादिक अनेक भले गुण है, तिनको इन्द्रिय-सुख रूपी ठग हैं, सो ठगँ। सो बतावे हैंगाधा-बोधय तव चारत्तो, संजम माणोय साम्य पण्णो । ए सहु गुण जग पूज्यो, अख सुह वंचय तसयरा बुधे ॥१०९॥ अर्थ-बोधय कहिये, ज्ञान । तव कहिये, तप। चारत्तो कहिये, चारित्र। संजम कहिये, संयम। झोणीय | कहिये, ध्यान। साम्म परणो कहिये, शान्त परिणाम । एसहु गुण कहिये, ए सब गुण। जग पूज्यो कहिये, ३५१
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy