SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परकं दुखी दरिद्री देखि, आप राजी होय। सो दुष्ट जानना! सो या दुष्ट, जगत निन्ध के संगत भला जीव निन्ध || होय, अपयश पावै, अनादर होय । ता अनादर तें, आत्मा दुखी होय है। तातै दुष्ट का संग मने किया है और जो ।२७१ ।तु कही पर-भव में दुष्ट दुखदायी कैसे होय? सो भी त चित्त देश सति। जिन दहा जनतें पीति होय। तब वह पापाचारो, पाप कार्यन में रआयमान करा है। यह बिना कारण सहज स्वभाव, धर्म ते द्वेष-भाव करनहारा दुराचारी, धर्म भावना रहित, अनेक भक्ष्यादि भोजन करनहारा, याकौ कोई धर्म नाम भला लगता नाहीं। सो पुण्य तैं छुटाय, पाप पंथ का प्रेरक होय है। जैसे बने तैसे, अनेक जुगति देय के हाँ सि कौतुकनमैं, इन्द्रिय नित भोगन मैं लगाय, धर्म ते भृष्ट करि, पाप कार्यन में तन, मन, धन, वचन ते अनेक प्रकार सहायक होय है। पाप करावै स्नेहो कं दुई द्धि करि पाप-बन्ध कराय, पर-भव बिगाड़ें। तात अनेक दुख ए जीव पावे। ऐसा जानना। तातें भी भव्य ! तं याका संग स्नेह, नरक पशून के दुख का दाता ही जानना । ताते या दुष्ट जीव का निमित्त सब प्रकार दुखदायी जानि, तजना सुखदायी है और कदाचित् भो धर्मात्मा! तू सरल बुद्धि है सो दया-भाव करि कमी रोसा विचारैगा, जो मैं कोई नय दृष्टान्त करि, याकों धर्म विष लगाय, याका भला करूँगा। सो परोपकारी | भव्य ! तूरोसा भ्रम तज देय । याका सुलटना महाजसाध्य नहीं होने जैसी वार्ता जानि। जो कुत्ते की पंछ की कुटिलाई मिटै सूधी होय, तो इस दुष्ट की दुष्टता छुटि धर्म रूप होय तथा सर्प की चाल वक्रता तजि, सरल होय, तो इस कुबुद्धि को धर्म रुचि होय । तात जैसे-नाग की चाल अरु श्वान की पूंछ, इनकी वक्रता अनादि की, ॥ कोई उपाय ते नहीं मिटै। तैसे ही दुष्ट स्वभाव, सहज हो अनाचार रूप होय है। याके धर्म कदाचित् भी नहीं होय। तातें ऐसा जानि. दुष्ट का संग स्नेह तजना योग्य है और तन धनादि सामनो विनाशिक है। सो इनसे । ममत्व भाव तजना योग्य है। जैसे पीपल का पत्ता, चञ्चल है तथा गजकर्ण, चपल है तथा मुर्ख का मन चपल है।।। तैसे ही हे भव्य ! ये जगत् के इन्द्रियजनित सुख चञ्चल जानना। ए पीपल पात गज कर्ण मूर्ख का मन सहज ही चपल है । तेसे हो इन्द्रियजनित सुखन • सहज ही विनाशिक जानि इन त ममत्व भाव तजि धर्म विर्षे लगना २७६ | योग्य है। तू विवेकी धर्मार्थी है तातै तोकं धर्म का उपदेश कहैं हैं। सो तू सुनि। जो धर्मार्थी हैं तिनका चित । तो धर्म के उपदेश सतिने में लगे है और सर्व धर्म वासना रहित पासी है, तिनका चित्त धर्मोपदेश ते चचल होय ।
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy