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________________ को बैठा हौ। सो अब कैसे उठ्या जाय? मेरे भाग्य की है तो मिलेगी ही, कहा जायगी? अरु मेरे भाग्य में नहीं। होय, ती अब ताई, प्रगट-चौड़ी जगह में से, केसे बची होयगी? और अब मैं कदाचित लोभ के जोग तें उठौंहों।। तौ प्रतिज्ञा मेरी भंग होय। प्रतिज्ञा के भंग होते, मेरा पर-भव बिगड़े है। काया-धर्म, नाश होय है। तात जो होन- || ३०५ हार है, सो होयगी। मैं दोय घड़ी तो नाहीं उठौं हो। प्रशिः पूरण सो क्षेतहारजा है। ऐसा विचार तनकौं स्थिरीभत किए, तिष्ठ्या है। जो-जो सामायिक की क्रिया वन्दना, आलोचना सामायिक इत्यादिक पाठ | पढ़ें है। परन्तु मन-चश्चल भया. सो सामायिक मैं नहीं लागे है। तो भी ये धर्मात्मा का धर्म-फल जाता नाहीं और कदाचित दीनारों के लोभ तें सामायिक छोड़ि उठ खड़ा होता तो पाप-बन्ध होता। धर्म-क्रिया का अभाव होता । ताते ये धर्मात्मा अपनी प्रतिज्ञा तजि, उठे नाहीं । तौ परिणति चञ्चल भले ही होऊ। या धर्मात्मा का अभिप्राय भला है। अभिप्राय शुभ धिरीभत नहीं होता तो सामायिक तजि करि जाता। तात अभिप्राय शुद्ध रहते तस्व-प्रद्धान दृढ़ता कौ लिये हैं । सो ऐसा धर्मात्मा उत्तम धर्मी ही है। ऐसे ही श्रद्धान की दृढ़ता अरु परिणति का आरति-भाव सर्व धर्म अङ्गन में लगाय लैना । सो ऐसे धर्मी का तौ विकल्प होते भी धर्म जाता नाहीं। रौसा जानना और एक लोभ के निमित्त धर्म स्वांग धरि तप, संयम, ध्यान, जिनवानी का पाठ इत्यादिक धर्म अङ्ग करें और अमिप्राय चोरी का है। जैसे-रुद्रदत्त चोर था, सो लोभकों देहरे (जिन-मन्दिर)जी का माल चोरनेकौ धर्मात्मा ब्रह्मचारी का भेष धरि नाना तप, संयम, भले पाठ करता सेठ के घर आय, धर्मात्मा होय, जिन-मन्दिर में रह्या । सो जिन-मन्दिर के चंवर, छत्र, कलशादि चोरे। खोटे अभिप्राय तें धर्म-सेवन करै था, सो तिनका कल-तो नहीं लगा। अरू खोटे अभिप्राय के जोगत मरि नरक गया। ताते ऐसे धर्म-सेवन मैं तोकौं दोय भेद कहे-सो जानना। जाका धर्म-सेवन मैं अभिप्राय धर्म रूप है ताके तो पुण्य फल होय है। जिसके धर्म-सेवन में अभिप्राय खोटा होय। ताके पाप-बन्ध होय है। ताते शुद्ध-भावन के अभिप्राय बिना जो धर्म-सेवन है। सो ऊपर को तोता, बगुलादिक तिन समानि जानना। शुद्ध-भावन बिना धर्म साधन लौकिक के दिखानेक करें हैं। ते जीव धर्म के अभिलाषी नाहीं। इनका धर्म-सेवन का कष्ट वृथा ही जानना। जैसे--कोई सेठ का मन्दिर बने है। तहां अनेक मजूर लगे हैं तिनकू मजूरी करते देख के एक अज्ञानी पागल पुरुष 'आया सो भाप भी बिना कहे ..
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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