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क्षय तैं अनन्त केवलज्ञान होय सर्व दर्शनावरण का नाश भये केवलदर्शन होय । मोह-कर्म के क्षय होतें क्षायिक सम्यत्तत्व तथा यथाख्यात चारित्र रूप निराकुल भाव रूप अनन्त सुख होय । अन्तराय-कर्म के सर्व अभावतें अनन्तवीर्य होय । तिनमें केवलज्ञान, केवलदर्शन होते तीन लोक व तीन काल सम्बन्धी पदार्थन का जानपना होय और अनन्तवीर्य होते अनन्त पदार्थ देखने की अनन्तशक्ति प्रगट होय है। जो अनन्तशक्ति नहीं होती तो अनन्त पदार्थ के देखनें तें खेद होता और मोह-कर्म का क्षय होता नाहीं पर पदार्थ में राग-द्वेष होता. यथावत् सुखी नहीं होता। तात केवलज्ञान दर्शन तो मूर्ति जमूर्ति पदार्थ जाने और अनन्तवीर्य तें सर्व पदार्थ के देखते खेद नहीं भया । ऐसे अनन्त चतुष्टय सहित केवलज्ञान का धारी सयोग केवली अतीन्द्रिय सुख भोगता तिष्ठ है। ऐसा सुख संसार दशा में जो तीन काल सम्बन्धी अनन्ते अहमिन्द्र देव इन्द्र सामानिक च्यारि प्रकार देव अनन्ते चक्री षट्खण्डी कामदेव अनन्ते नारायण प्रतिनारायण बलभद्र अनन्ते ही मण्डलेश्वर राजादिक अनेक और अतिशय सहित पुण्य के धारी पुरुष विद्याधरादिक इन सबन का इन्द्रिय सुख तीन काल सम्बन्धी इकट्ठा कीजें तौहू केवलज्ञान के अनन्त भाग नहीं होय ऐसा सुख केवलज्ञान भये हो है । संसारी सुख तो ऐसा है । जैसे- कोई पुर का राजा काहूं वैरी को बन्दी पड़या है। सो राज, धन, सम्पदा बहुत है। सो रुका है तौ भी खान-पान, वस्त्र, आभूषण तो वांच्छित पहिरे है और भोजन रस मय करें है। सो इन्द्रिय सुख मैं कमी नाहीं । परन्तु बन्दी मैं पड़ा है। सो महादुखी हो रहे हैं। सो और जो रुके नाहीं स्वेच्छा सुख सूं राज करें हैं, ते महासुखी हैं। तैसे ही देवादिक संसारी जीव मोह राजा की बन्दी मैं हैं । सो शुभ कर्म उदय तैं इन्द्रियजनित सुख तो है । परन्तु निर्बंधन सुख नाहीं और केवलज्ञानी का सुख स्वेच्छाचारी राजा की नाई निर्बंध सुख है । तातैं केवली का सुख जपार है। ऐसे केवलज्ञान सहित भगवान की हमारा नमस्कार होऊ । इति केवलज्ञान का कथन |
इति श्रीहष्टितरङ्गिणी नाम ग्रन्यके मध्य में अवधि मनः पर्येय केवलज्ञानका वर्णन करनेवाला बीसवाँ पर्व सम्पूर्ण हुआ ॥ २० ॥ आगे कहे हैं जो इस मनुष्य आयु के दिन सोई भई मोतिन की माला ताक भोला जीव वृथा खावै है । ताहि दृष्टान्त देय दिखावे हैं
गाया-मुत्तादामं वर्ग कज्जय, भंजय मूवा णाण रद्दिया । इम असफल सुह सुहृदो, मंजय गरो आणु विणे मुल फलं ॥४९॥
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