SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५१ मला ते मान जहा तानिमित्त ही की महन्तता है। तातै विवेकीन कू मला निमित्त मिलावना हो योग्य है। विशेष राता है जो अपने परिणामन की विशुद्धता ते अधिक विशुद्धता का निमित्त होय तो अपना उपादान, | निमित्त प्रमाण करना और अपने भावन की विशुद्धता ते निमित्त सामान्य है, तो अपना उपादान, निमित्त प्रमारा नहीं करना। इत्यादिक विचार है सो सम्यग्दृष्टिन के अपनी बुद्धि करि विचारना योग्य है। ऐसा श्रुत-ज्ञान से निमित्त-उपादान का स्वरूप जानिये है। तातै श्रुत-ज्ञान उपादेय है। इति निमित्त-उपादान। आगे श्रत-ज्ञान ते और भी सुवाणिज्य-कुवाणिज्य का स्वरूप जानिये है। सो हो कहिये हैगाथा--हिंसावाणिज्ज हेमं, तिल धातु आदि भूमिजलखण्डो । अप्यारम्भो सुह फओ, विणहिसा णित्त मावेओ ॥ ४४ ॥ अर्ध–हिंसाकारी वाणिज्य तजने योग्य है । तिल, लोह कं आदि धातु का व्यापार, तजवे योग्य है और जामैं अल्प प्रारम्भ होय सो शुभ वाणिज्य करना । जामें हिंसा नाहों, ऐसा वाणिज्य उपादेय है। भावार्थजे सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा हैं। सो वाणिज्य करने मैं ऐसे शेय-हेय-उपादेय विचार हैं। सो दिवाईए है। तहां शुभ-अशुभ वाणिज्य का समुच्चय जानना, सो तो ज्ञेय है। ताके दोय भेद हैं। एक शुभ वाणिज्य है, एक अशुभ वाणिज्य है। तहो जो हिंसा, मूठ, चोरी दोष रहित होय, सो शुभ वाणिज्य है। हीरा, मोती इत्यादिक जवाहिरात सीधा लेना और सीधा ही देना। संचय करि बहू दिन नहों राखना, यह निर्दोष वारािज्य, उपादेय है। चाँदी, सुवर्गटके, रुपये, असर्फी लेना, तैसे ही देना तथा जरकस, तास, गोटा मुकेशाद सोधे लेना तैसे ही देना, श निर्दोष वाणिज्य, उपादेय है तथा पराया गहना सखि व्याज का वाणिज्य, सो शुभ वाणिज्य है। ए कहे जो व्यापार सो अग्नि-जल के आरम्भ रहित तौ शुभ वाणिज्य हैं और जिनमैं जल का तथा अग्नि का आरम्भ होय, तो ये आरम्भी हिंसा सहित वाणिज्य हेय हैं और सूजी आजीविका, वचन आजीविका, दृष्टि आजीविका और कष्टी आजीविका । ये च्यारि आजीविका के भैद हैं। तहां चिकन काढ़ना, कसीदा करना, वस्त्र सीवनादि, दरजी का काम जे सूजी से कमा सो सूजी आजीविका है। सो निर्दोष है, २५१ || उपादेय है और लेने-देनेवाले के बीचि विद्वत होय व्यापार करा देना, अपने वचन ज्ञान के बल करि आजीविका | पैदा करें। जैसे-लौकिक में दलाली करनेहारे, सो हिंसादि दोष रहित, शुभ वाणिज्य है, सो उपादेय है।
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy