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________________ भावार्थ-यह संसारी जीव तौ मोह के वशीभत भये निद्रा-कर्म के उदय मया जो आत्मा के ज्ञान-दर्शन का धात ताके निमित्त पाय आत्मा जह समानि होयता निद्रा को प्रात भर लीव माता आनन्द भया मान हैं। सो हे भव्य ! र निद्रा मृतक समानि चेष्टा लिए जाननी तथा इसे मृतकहूँ ते अधिक दुःखदायक जानना। सोही बताईये है। जो सत्य है सो तो एक शरीर के उदय वि एक बार बायु के अन्त उदय होय प्रात्मा के दर्शन-ज्ञानकूघाते है और निद्रा है सो आत्मा का मुख्य गुण ज्ञान-दर्शन ताकौं छिन-छिन में घात है और ए निद्रा मले गुण का धाति करि, अशुभ-कर्म का बन्ध करि खोटो गति देय है। तातै निद्राकू मृत्यु तेंहदीरघ दुःख-दाता जानना । ताही ते योगीश्वर निद्रा का प्रवेश अपने स्वभाव में नहीं होने देंय हैं। ऐसा जानना। आगे दुष्ट जीवन का स्वभाव दृष्टान्त देकर बतावे हैंगाथा-दुजण जोंक समभावो इगओयण इग रुपर गह लेई । सथण लगो वा पोसउ गिजणिजपकत्य णाहिको बहई ॥१.३॥ अर्थ-दुजरा कहिये, दुर्जन। जौंक कहिये, जौंका सम भावो कहिये, ए एक से हैं। इग जोयस कहिये, एक तौ औगुण । इग रुधर गह लैई कहिये, एक रुधिर गहलेय। सथण लगो कहिये, धन ते लागे। वा पोषक कहिये, भावं पोषै। रिगज-रािज पकत्य कहिये, निज-निज प्रकृति। शाहिको जहई कहिये, कोई तजता नाहीं। भावार्थ-संसारी जीवन के अनेक स्वभाव होंय हैं तिनमें केतक ऐसे हैं। जो परकौं दुःखदायी दुष्ट स्वभावी पर दुःख सुखिया पर सुख दुःखिया अन्य जीवनकू दुःखी, दरिद्री, रोगी, शोको, भयवान्, मान-भङ्गी इत्यादिक जसाता सहित देख महासुखी होंय कोई सुखिया को अच्छी तरह स्वावता, पहिरता, अच्छे भोग भोगता, नाचता, गावता, हँसता, रोग रहित धनवान् इत्यादिक प्रकार सुखी देख तो दुःखी होय। ऐसे पापाचारी दुष्ट जङ्गी रौद्र परिणामी दुर्जन स्वभावी जानना। सो र दुर्जन स्वभावी अनेक दोषन ते भरचा है। याका सहज स्वभाव ही दुराचार है। याकौं शुभ करवे का कोई उपाय नहीं । याकौ शुभ भी करो तो दोष हो अङ्गीकार करै। इस दुष्ट का स्वभाव जोंक समान है। जौंक अरु दुर्जन इन दोऊन का एक स्वभाव है। दुर्जन अवगुण का हो ग्रहण करे है। यह याका सहज स्वभाव ही है। जौंक है सो लोह का ही ग्रहण करे। इस जौक का भी यही स्वभाव है। देखो इस जोक को दूध के भरे आँचल से लगावो, तो दूध तज के स्तन का लोह पीवै और इस दुर्जनको F ३५४
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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