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________________ अधिकारी होय। मन-वचन-काय करि कोमल होघ । इत्यादिक लक्षण साहत होय सोपीत लेश्यों जीव है। । इति पीत लेश्या ।। आगे पढ़ा लेश्या तहां भद्र परिणामी होय। त्यागी होय । मले कार्य रूप भाव होंय । महाव्रतअणुव्रत का वांच्छक होय । सिद्ध क्षेत्र तीर्थ वन्दना का अभिलाषी होय। पञ्च-परमेष्ठी की पूजा विष उत्सववन्त होय । कष्ट उपद्रव भये धीर बुद्धि होय । देव-गुरु आदि का भक्त होय। इत्यादिक शुम चेष्टा सहित जाके लक्षण होय सो पा लेश्यी है। इति पद्म लेश्या। ५. आगे शुक्ल लेश्या-तहां पक्षपात करि काहूँ • बुरा नहीं कहै । सर्व जीवन पै दया करि मैत्री-भाव राखे और इष्ट-अनिष्ट में बहुत राग-द्वेष नाहों करें और कुटुम्बादिक ते अल्प राग करें। धर्मो जीवन विषै प्रीतिमान् होय । इत्यादिक लक्षण सहित होय सो शुक्ल लेश्यी है । इति शुक्ल लेश्या ॥६॥ आगे लेश्यान के भाव का स्वरूप कहैं है। तहां लेश्या द्रव्य और भाव करि दोय भेद रूप हैं तहां जैसा शरीर का वर्ण होय सो तो द्रव्य लेश्या है । जीव के जैसे भाव होघ सो भाव लेश्या है। सो तिन भाव लेश्या का दृष्टान्त दिखाय भावना को लेश्या प्रगट कर है। तहां एक वनम लकड़ो काटनहारषट् पुरुष प्राय। सो तिन सबन के पास कुठार हैं। सो एक आम के वृक्ष के नीचे घनी छाया देख बैठ गये। तब एक पुरुष बोल्या कि भाई, मख लागी है। तब तिनमैं एक कृष्ण लेश्यो जीव बोला कि माई जो अपने पै कुठार हैं। सो इस आम 4 जो फल : लगे हैं। सी लग जावो । मारे कुठारन के आमकं पोण ते काटो सो सर्व के पेट भरें। रातौं कृष्ण लैश्यी है।। दूसरा बोल्या जो पोड़ा तें काहेक काटी वृथा वृक्ष का खोज मिट जायगा। तातें आधा एक तरफ से बड़ी साखा || काटो सो सब खांयगे। अपन लायक बहुत हैं। ए नील लेश्यी है।२। पीछे तीसरा बोल्या जो आधा गिराये वृथा वृक्ष की शोभा जायगो तातें एक छोटी शाखा काट लेऊ । सो अपनकौं बहुत हैं । ऐसा कापोत लेश्यी है।३। तब एक बोल्या, जो शाला काहे कौं काटो। भूमके-झमके तोड़ो सो खाय लेय हैं। श पीत लेश्यो है। ४ । तब पञ्चम पुरुष बोल्यो जो ममकेन में कच्चे-पक्के सब ही हैं। तातै पके आम तोड़ लेउ और अपनी क्षुधा मैटो। श पद्म लेश्यो जानना। ५ । तब षष्ठ पुरुष बोल्या। हे भाई हो। इस तसकं काहे को सतावी हो ममि वि अपने खाने योग्य तो बहुत पड़े हैं। सो एके-पके खाय अपनी भूख मिटावो। ए शुक्ल लेश्यी है । ६ । ऐसे षट् प्रकार भाव भेद जानना। इन परिणामन करि अपने तथा पर के परिणामन की परीक्षा करि लेश्या के अन्तरङ्ग भाव
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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