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________________ का उल्लङ्घन करने लगे। तब छेदन-भेदन, वध-वन्धनादि दण्ड भये।४।ऐसे दण्ड भेद च्यारि कहै । सो जीवन की जैसी-जैसी कषाय भई, तैसा-तैसा दण्ड विधान चल्या । सो अब देखिये है। जो दोरघ चूक तें. दीर्घ दण्ड | पाते। अल्प चूक ते शोरा दराव पाने और चूक रहित स गुण सहित जीवन की, पूजा होती देखिरा है। तातें ऐसा जान, विवेकी पुरुषन कचूक (मूल) भाव छांडि, गण करना योग्य है। इति दण्ड भेद। इति श्रीसुदृष्टि तरंगिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में दश करणादि के भेदों का वर्णन करनेवाला अट्ठाईसा पर्व सम्पूर्ण भया ॥२८|| | __ आगे श्रावक की क्रिया पच्चीस हैं। इन-इन भावन से जीव, कर्म का आसव करै है, सो ही बताइये है। प्रथम सम्यक्त्व को क्रिया कहिये है--तहां अठारह दोष रहित शुद्ध देव की पूजा, शुद्ध गुरु की पूजा, शुद्ध धर्म की पूजा, जिन बिम्ब की पूजा, सिद्धक्षेत्र पूजा। धर्मात्मा पुरुषन के गुणन में अनुराग भाव, वात्सल्य भाव । दोन, दुःखित, रोगी, दुःखी-दरिद्री इत्यादिक क्लेशवान् जीवनकों देख, दया-भाव करें। समता-भाव बढ़ावें। इत्यादिक समभावना सहित जोय, शुभ-कर्म का आस्रव करै है। याका नाम सम्यक्त्व क्रिया है। ये तो शुभ आस्रव है।। प्रागे मिथ्यात्व प्रवद्धिनी क्रिया कहिये है-तहां कुदेव पूजा, कुगुरु पूजा, कुतीर्थ पूजा, हिंसा सहित कुतप तिनके करवे की भावना, औरन के हिंसा तप को प्रशंसा, कुदान करवे की अभिलाषा, कुव्रतन में काय को प्रवृत्ति, सर्व में विनय, सुदेव-सुगुरु, कुदेव-कुगुरु, इनकौं एक से जानना इत्यादिक भावन तैं अशुभ-कर्म का आस्रव होय है। याका नाम मिथ्यात्व प्रवद्भिनी किया है। ये शुभ-कर्म कौं उपजावे है। २। और असंयम प्रवद्धिनी क्रिया कहिये है-तहां मन में अनेक विकल्प धन-धान्य की चाह करना। भोग-उपभोग में अभिलाषा रूप रहना, इन्द्रियन के पोखवे की वौच्छा इत्यादि असंयम के विकल्प रूप मन का वेग, सो मन असंयम है। पंचेन्द्रिय अपने विषय कौ चाहती। सो रसना इन्द्रिय, षट रस के भोग में लब्ध । स्पर्शन इन्द्रिय, अपने अष्ट विषयन में लुब्ध। घ्राणेन्द्रिय, सुगन्ध इच्छुक । नेत्र इन्द्रिय, पञ्च वर्ण विबै लुब्ध। श्रोत्र इन्द्रिय, सुस्वर शब्द-वादिनन में लब्ध। इत्यादिक इन्द्रिय असंयम रूप। ऐसे मन व इन्द्रिय आत्मा के वश नहीं रहैं और उस-स्थावर के षट ! कायन की दया नहीं पाते। ऐसे बारह असंयम रूप भावन के विकल्प ते, अशुभ-कर्म का पासव जीव करे है। याका नाम असंयम प्रवद्भिनी क्रिया है।३। आगे प्रमादनी चौथी किया कहिये है-तहां जो जीव प्रथम तो आप
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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