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कुशील माव है, सो ब्रह्मचर्य के हरने कू कुटिला-स्त्री समान है। फिर कुशील भाव कैसा है ? कुगति जो नरक तिर्यच गति ताके मार्ग कं बतायें है। कैसा है कुशील ! जो मोह-मार्गसम्यग्दर्शन-शान-चारित्र, इनके हरे है। तातें हे भव्य हो ! यह कुशील भाव है सो याकौ तौ । अरु शील भाव कू अङ्गीकार करहु। ऐसे कह जो शोल भाव अरु कुशील भाव तिनका स्वभाव अपनी बुद्धिके बल करि पहिचान समता रसके स्वादी होय इस जगत बिडम्बना रूप विकार भाव सहित जो कुशील भाव तिनका तजन करि मोक्ष रूपी स्त्री के सम्बन्ध ते उत्पन्न, जो निराकुल, अद्भुत, अतीन्द्रिय सुख, ताही की तुम शीलभावके प्रसाद भौग करि, सुखी होऊ। यह को जो कुशीलभेद, तिन कुंतजि ऊपर कहे शील गुणकौं धारे। सो क्रिया-ब्रह्म जानना। इति कुशील निषेध, शीलकी महिमा कही। आगे च्यार भेद क्रिया-ब्रह्मके हैं। तिनकी क्रिया लिलिये हैगामा–सिर लिन उर लिङ्गो, कटि लिङ्गो उरय लिङ्ग पव भेयो । धारय सो दुज सुदो, वभ चारोय धार समभावो ॥१५३५
ई-शिएलिजर लहिरे, सिरका चिन्ह । उर लिङ्गो कहिये, उर (छाती) का चिन्ह । कटि लिंगो कहिये, कमरका चिन्ह । उरय लिंग कहिये, जंघाका चिन्ह । चव भेयो कहिए, र चार प्रकार क्रिया ब्रह्म है। धार समभावो कहिए, समता भावोंको धारण करें। बभचारोय कहिए, वही ब्रह्मचारी है। धारय सो दुण सद्धी कहिए, वही शुद्ध द्विज है। भावार्थ-भले तीन कलके उपजे धर्मात्मा-गृहस्थके बालक, ते काल गृहस्थाचार्यक पास विद्याका अभ्यास करें। तेते समय गुरुकी आज्ञा-प्रमाण ब्रह्मचर्य-व्रत पालें । अरु च्यारि चिन्ह सहित रहैं। सो सिर लिंग ताकौं कहिए, जो नग्न शोश रहै । सो चोटीमें गठि राखें, सो सिर लिंग है।३। उरु लिंग ताको कहिए, जो गले विर्षे रत्नत्रयका प्रसिद्ध चिन्ह, जिन-धर्मका निशान, पक्का जैन अपना जिन-धर्म प्रगट करनेके निमित्त, गलेमें सीन सूतकी-उर बिजनेऊ डालें सौ उरका चिन्ह है।३। डाभको तथा मजकी रस्सीका, कमरकी करधनीकी जायगा. ताका बन्धन राखै, सो कटिका चिन्ह है । ३। उर नाम जंघाका है। सो जांघपर उज्वल धोती राखै सो उरुका चिन्ह है।४। इन च्यारि गुरा सहित जो क्रिया होय सो क्रिया-ब्रह्म है। उरका चिन्ह जनेऊ है ताके नव गुण हैं। इन नव गुण सहित जो भव्य होय, सो जनेऊ राखें । अरु इन गुण बिना जनेऊ रावै, तो परंपराय तें, धर्मका लोप होय। ताकौं पाप-बंधका करनहारा कहिए सो वै नव गुण केसे, सो