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के घेदन कूस्तो
धन ते, घरको मात्र के करने कूता
| लोभी किसान, जाल ते पकड़ के, अपना खेत बचाव है। तैसे ही अनेक गुणान का उपजावनहारा संयमरूपी
खेत, ताकों इन्द्रियरूपी मृग बिगाड़ें हैं। सो अपने संयम-खेत की रक्षा का करनहारा धर्मात्मा पुरुष, सो इन्द्रिय | रूपी मृग तिनकू शोलरूपी जाल तैं पकड़ि, अपने वश करि, अपने संयम स्खेत को बचावै इत्यादिक बनेक | गुणों का भण्डार यह शील-व्रत है। ताते याकी रक्षा किये, स्वर्ग-सम्पदा दासी होय। मौत-सम्पदा घर विर्षे गान। सो विदो हो ! इसकी रक्षा करो। इति शील-महिमा। भागे कुशील का स्वरूप कहिये हैगाथा-धम्म तक भंज गयन्दो, मिल्छा रयणीय माहि मिग्गाको । आपद धान गह भरई, ये सळ दोसाय अणणि अवंभो ॥१५॥
अर्थ-धम्म तरु भंज गयन्दो कहिये, धर्मरूपो वृक्ष के छेदने कू हस्ती। मिच्छा रयणीय माहि मिग्गाको कहिये, मिथ्यात्वरूपी रात्रि के करने कूताका नाथ चन्द्रमा समानि । मापद धरा गह मरई कहिये, आपदारूपी धन तें, घरको मरनहारा ये सऊ दोसाय जराशि अवम्भो कहिये, इन सब दोषों की जननी जब्रह्म है। भावार्थ-धर्मरूपी वृक्ष यशरूपी सुगन्धित फूलों करि फूल्या, स्वर्ग-मोक्ष है फल जाके ऐसा धर्मवृक्ष, ताकों तोड़-विध्वंस करने को कुशील भावना, मतङ्ग हस्ती समान है। सम्यग्ज्ञानरुपी दिन, सर्व पदार्थन का जनावनहारा ताके हरने कुजस मिथ्यात्वरूपी रात्रि के प्रकाश करने के कुशील-भावना रणनीपति--चन्द्रमा समान है और आपदा कहिये नाना प्रकार दुःख, दारिद्र, रोग, भय, जेई भई सम्पदा तिनतें घर भरनहारा कुशील है। भावार्थ-जाके कुशील है ताके घर आयदा काहूँ नहीं छूट इत्यादिक अनेक दोषों के जन्म देने कू समर्थ कुशील-भावना माता समान है। ऐसा जानि कुशील-भावना तजना भला है। आगे और भी कुशील का स्वभाव कहै हैंगाषा-भ हणण तिय कुटिला, कुमय गमण कर हरय सिव मन्गो । एहो भाष अबमो, हेयो काय भव्य वंभ पादेयो॥१२॥
अर्थ-वंम हराश तिथ कुटिला कहिये, ब्रह्म नाशने कू कुटिला स्त्री। कुगय गमरणकर कहिये, कगति में गमन करें। हरय सिव मागी कहिये, मोक्ष-मार्ग को हरैं। राहो माव अवंभो कहिये, ऐसा कशील । भाव है। हेयो कीय भव्य कहिये, ये भए जीव के हेय है। वंभ पादेयो कहिये, ब्रह्मचर्य-माव उपादेय है। | भावार्थ से कुटिला स्त्री है सो अनेक हाव-भाव करि, पर-पुरुषका मन मोहकर ताका शील हरे है। तैसे ही