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भतृहरिने वनमें जाय तापसीके व्रत धार सो अनेक अज्ञान तप करे। सो एक दिन वनमें भूल्या सो तृषावन्त भया नोर देखता, एक जायगा वन दान तापसी, रिमादिलेगा नाप करें. तमा रहुंचा । सो भतृहरिने तिस तापसीके पास जाय, नमस्कार किया। तब तापसीने, भतृहरि सू कही। तुम अपना नाम-कुल कहो। | तब मतृहरिने नाम-कुल का सो भतृहरिने, याको बड़ी सेवा करी तब तापसीने राजी होय, कलही तुम्बी भर दोनी। और कही। यातें तांबा, कान होय है। अनेक मन्त्र तन्त्र आदि चमत्कारी-विद्या दई। ऐसे बारह वर्ष ताई, मतृहरिजोने, तापसीको सेवा करी। पीछे गुरुके पास ते, सीख मांगी। पीछे भाई शुभचन्द्रणी की खबर को चेला भेजे। सो चेलोंने, शुभचन्द्र को गन्धमर्दन पर्वत पे ध्यानारद, नगन तन, वीतराग देने सो भतृहरिके चेला, दोय दिन उपवास करि, भूख त भागे सो आय मतृहरि कृ कही। तुम्हारे माई लंगोट माहीं। भूख तें तोश है। अरु तुम, राज भोगो हो। सो कछु भाई को देव। जाते ताका दारिद्र जाय। तब मातृहरि ने, पाथा कलर का तम्बा, माई को भेजा। सो शुभचन्द्रने पत्थर पै डाल दिया। तब चेलाने, भतृहरि सं कही। वह भाग्यहीन है, कलङ्क डाल दिया। तब भतृहरिने अाप, शुभचन्द्र जो पै जाय, पिता समान बड़े भाई कू जानि, विनय ते नमस्कार करि कलंक को तुम्बो बागे धरी। तब शुभचन्द्रजी ने कही. तूम्बीमें कहा है ? तब मतृहरिने कही। भो प्रभो । तांबातें कंचन करें, या ऐसा गुण है । तब शुभचन्द्रणी ने तूम्बा उठाय, शिलापर धरि पटक्या।
सो भतहार कही। भो भ्राता यह अनेक राज्य--सम्पदा का द्रव्य, आपने डाल दिया, सो भली नहीं । है भ्रात। बारह वर्ष गुरु की सेवा बारी, तब मोकू उन्होंने दीनी थी। इस तरह भातृहरि कौं खेद-चिन्न देख शुभचन्द्रजी ने की। भो वत्स ! राज्य तणि, वन वसे। अब भी कलंक नहीं तज्या। यह कलंक, मुनीबरों कू कलंक समान है। तातें तजना योग्य है । अरु भो वत्स! तेरे कलंक , याहन तो कंचन नहीं मया। बरु तेरे स्वर्ण की चाह होय, ता देन! ता सुभदन्द्र ने, 'चाको गांव-नीको रग लेप, एक बड़ी शिला पे डाली। सो सर्व शिला कंचनकी मह । सो मत हरि यह अतिशय देख, बड़े भाईके पायन पड़े।
अनेक स्तुति करि, शिन-दीक्षा याची। तब शुभचन्द्रजी ने दीक्षा दई। अरु इनके संबोधवै कों, झानाव | नाम ग्रन्थ बनाय, दीवामें डढ़ किया। सो पीछे, दोध माई. जिन-दोना सहित तप करते भये। अस वहा,