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भये। सो श्री मानतुङ्ग आचार्य ने प्रथम तौ भक्तामर स्तवन राजा भोजकों पढ़ाया। ता पीछे, सर्व जगत के | भव्य-जीव ताकौं पठन करते मये। सो भक्तामर के कर्ता, विघ्न के हर्ता, मङ्गल के कर्ता, श्री मानतुङ्ग गुरु सु! मोकौं इस ग्रन्थ के पुरण होतें, अन्स-मङ्गल में सहाय करौ। ऐसे महाअतिशय के धारक, पञ्चमकाल में साधु भये । तिनकू मैंने ग्रन्थ के अन्त-मङ्गल निमित्त स्मरण किया। . इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में अन्त-मङ्गल निमित्त, एकीभाव के कर्ता श्री धादिराज मुनीश्वर तिमके गुणोंका स्मरण तथा भक्तामरके कर्ता थीमानतुन नामा गुरु; तिनके गुणनका चिन्तन, तथा स्तोत्रनके
____ कारणों का वर्णन करनेवाला इकतालीसवां पर्व सम्पूर्ण भया । ४१ ॥ ऐसे इस ग्रन्थ के पूर्ण होते, अन्त-मङ्गल के निमित्त, कल्याण के अर्थ, इष्टदेव, पञ्च परम गुरु, सिद्धक्षेत्र, समोवशरण विषं विराजते भगवान्, अकृत्रिम जिन-भवन, इन आदिक सर्व का स्मरण, ध्यान करि, तिनकू नमस्कार किया। ताकरि हमने अपना मनुष्य-जन्म पाना, सफल मान्या। काहे ते सो कहिये है—जो यह ग्रन्थ, सागर समान गम्भोर, नय तरङ्गन करि भरया, नहीं दृष्टि परे है सामान्य ज्ञान में अर्थरूपी मर्यादा कहिये पार जाको। रोसे अगाध गुण-निधि का पार पाना, हमसे ज्ञान दरिद्रीना, महादुर्लभ । सो इष्ट देव गुरु के प्रसाद, तिनको भक्तिके अतिशय करि ग्रन्थ पूरण भया। सो यह आश्चर्य ऐसा भया जैसे कोई भुजा रहित पुरुष, अन्तक स्वयंपूरमण समुद्रको तिरके पार होय, लोकनकू विस्मय उपजावै । ऐसा ये कार्य जानना। तथा कोई धन रहित दरिद्री पुरुषने व्याह रच्या। अरु बड़ी जायगा सगाईका संबंध करि, हजारों मनुष्य नेवते देय परदेश से बुलाये। सो इसको क्रिया देख, जो धनवान थैः सो हाँ सि करते भये। जो देखो, घर विर्षे तो एक दिनको अन्त्र नाहीं। अरु व्याह, ऐसा भारी रच्या है । सो कैसे बनेंगा ? अरु यह पुरुष भी, अपनी अज्ञान-चेष्टा देख, चिंतावान | भया। मैंने अपना पुण्य-बल नाही विचार था, अरु कारण दीर्घ रध्या! यह केसे पूर्ण होयगा। ऐसे यह पुरुष चिन्ता करता रात्रिको तिष्ठ था। सो याके पुण्य तें, कोई देवता आय, चिन्तामणि देय गया। सो या पुरुषने चिन्तामणिके प्रभाव से, प्रभात मला ब्याह किया। वांच्छित सबनको भोजनज्योनार देय, जगतको आश्चर्य उपजाय, यश पाया। तैसे ही मैं ज्ञान-धन रहित, ग्रन्थ रूपी बड़ी शादी रची थी। ताके पूर्ण होनेकी बड़ी चिन्ता
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