Book Title: Sudrishti Tarangini
Author(s): Tekchand
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 613
________________ | कही--राजन डरौ मति और उसने कालिका देवीकू माराधी। जब देवी पायी। सौ महाविकराल रूप || बनाय ताने कही-भो कालिदास ! क्यों आराधी सो कहा ? गते हो में चक्रेश्वरी देवी आय पतिको नमस्कार | ६५ किया अरु कालिकाकू देख चक्रेश्वरी ने कही-रे महापापिनो! तेंने मूर्खन के संग करि अपना आत्मा पाप-लित करि पर-भव बिगाड्या । अब तोकौं स्थान भ्रष्ट करि हौं । द्वीपत निकास हो । तेनै यतिको उपसर्ग | किये। ऐसे चक्रेश्वरी के वचन कालिका सुन पाप-फलते कम्पायमान होय चक्रेश्वरी के पायन पड़ी।कही भो माता ! मो अपराध क्षमा करि । मो आज्ञा करौ, सो करौं । रौसे नाना प्रकार चक्रोश्वरी की स्तुति करि, पीछे कालिका, मानतुङ्ग गुरु के पायन पड़ी गुरु की अनेक विनति करती मई अरु कही-मी यति । मौकों आज्ञा करौ. सो करूं तब यति कही-भो देवी। पूर्व भव में पुण्य किया. ताके फल देवी मई। बड़ी शक्ति पाई। विवेक पाया। अब तू ही हिंसा को कर्ता भई, सो मला नाहीं। जब हिंसा तषि, दया-धर्म का सेवन करौ । ऐसी आला. गुरु ने करी तब कालिका ने मुनिकू नमस्कार करि कही-मो प्रभो । बाप तें, मनवचन-काय करि हिंसा का त्याग किया । आपकी आना मोको कल्याण के बर्थ है, सो मैंने बङ्गीकार करी। भो यतिनाथ ! मो अपराध क्षमा करौ। ऐसे कालिका देवीको सेवा करती देख राजा भोज पाय मुनि के पायन पड़ता भया। दीन होय गद्गद् वाणी करि कहता मया। भो दयानिधान ! रस | रक्ष! मो अपराध क्षमा करौ । मो दयामूर्ति | मेरा प्रायश्चित्त कहो अरु भव-भ्रमण मिटै, सो उपदेश देहु । तब गुरु ने कहीभो भोजराज [ आदिनाथ का धर्म सेये, कल्याण होयगा। तब राजा भोज, मानतुन मुनि पै, श्रावक के व्रत लेता भया। यह अतिशय देखकर, जे पण्डित, वाद को माये थे: सो मान तजि, मिथ्याभाव छाडि, श्रावकव्रत धारते भये । तब कालिदास आय मानतुङ्ग मुनि के पायन पड्या। कही-हे नाथ ! मेरा अपराध क्षमा करो अरु मोहि श्रावक-व्रत देहु । तब गुरु ने दया करि कालिदासकौं श्रावक-व्रत दिये । पोछे राजा भोज ने, गुरुपै नमस्कार करि कही-भो गुरुदेव ! एक सन्देह मोहि है सौ कहूं हूं । भो गुरुदेव ! आपके सर्व बन्धन टूटे सो मन्त्र कौन है ? सो कहौ । ये मन्त्र हमकौं दया करि देहु । तब गुरु कही-भक्तामर महामन्त्र भनेक विघ्न का नाशक है ताका स्मरण, पठन, ध्यान, सुखकारी है। ऐसा अतिशय देख, अनेक मिथ्या भाव तजत ६०५

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