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इति श्रीसुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्थ के मध्य में, बावक भेद रूम एकादश प्रतिमा विषे सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा के भेद ft महिमा, भोजन के सात अन्तराय, सत्रह नियम, आवक के इक्कीस गुण, अन्य-भत सम्बन्धी देतीक, सीड सहित किया ब्रह्मभेद, वश-भेद, कुल-वाह्य, कथन करनेवाला सैंतीसव पर्व सम्पूर्ण भया ॥ ३७ ॥
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आगे अष्टमी प्रतिमा का कथन लिखिये है। तहां अष्टमो प्रतिमा, आरम्भ-त्याग है। सो कोई भव्य, जब अष्टमी, प्रतिमा धारे। तब पापारम्भ तैं उदास होय, वह मोक्षाभिलाषो ऐसा विचारें। जो इस संसार में, गृहारम्भ के पाप तैं मोह के वशीभूत भया यह आत्मा, नरक-दुःख में अपनी आत्मा डुबोते है और जिनतें मोहबुद्धि करि, माफ कर शिर में धर्म से सो पायकल आये, इन मोहीन का नाम भी नहीं दीखेगा। द्रव्य खाय खाय सर्व अपने-अपने मारग लागेंगे अरु तिन पापन का फल, मोकौं ही भोगना पड़ेगा। जैसे— एक चोर के घर में आप, माता, पिता, स्त्री, पुत्र – ये पांच आदमी थे। ये पांचों कौं हो पाप फल ते भूखों मरते, अन्न बिना तीन दिन भये। तब पुत्र ने रुदन करि कह्या हे पिता ! अब हम सब घर-जन अन्न बिना मरे हैं। भोजन बिना तीन दिवस भये, सो दुःख हैं । तातें अन्न लाथ देव । तब चोर ने कही हे पुत्र ! बहुत फिरौ हों, परन्तु पाप-उदय तैं, कछू मिलता नाहीं । अब तुम धीरज धरो, मैं और जाऊँ हूँ। सो ये चोर कुटुम्ब के मोह तैं चोरो कौं गया। एक घर में खोर होय थी सो इस चोर ने अपनी चतुरता तैं, खोर का बासन चुरा लिया। सो ल्याय घर में आया। कुटुम्ब के आगे धरी, सो पांच थालियों में पांचों ने परोसी । तब सब ने कहो - भोजन तो भला ल्याया परन्तु मिष्टान होता तौ मला था। तब चोर कला-वारे ने कहो तुमने कहा है तो मैं मिष्टान भी ल्याऊँ हूँ। तब यह चोर तो मिष्टान्न कौं गया। सो बड़ी देर लागी। सो इनको थिरता नहीं रही। सो अपनी-अपनी थाली की खीर भूख के मारे खाय गये। बाकी जो चोर गया था सी ताका थाल ढांक ररुया । सो एते में एक मिजवान आया, सी चोरीबारे का खीर का थाल मिजवान के आगे धर या सो मिजवान ने खाया। तब वह चोर किसी का मिष्टान चुरा के आया सो देखे तो खीर नाहीं । घरवारों कों पूछो, तब उन्होंने कही—मिजवान आया ताने खाईं। थे चोर तीन दिन का भूखा दुखी है । एते में खीर अरु मिष्टान की खोज करते कोतवाल चोर कूं हैरते आए, सो कोतवाल ने इस चोर कूं पकड़ा। सो घर-जन अरु मिजवान खोर खावनहारे सर्व भाग गये। था चौर की मुसकें बंधीं । सो
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