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परिग्रह - आरम्भ के ममत्व का त्यागी होय । आगे अष्टम प्रतिमा में अल्प परिग्रह का त्यागी नहीं था। सामान्य परिग्रह था। सो अब सर्व परिग्रह त्याग कर एकान्त स्थान विषै धर्मध्यान सेवन करें। प्रथम दिन कोई नेवता दे जाय ताके घर भोजन करें। अपना घर तथा पराया घर एक-सा देखें। पाद्य पक्षेवरी राखै न्यौता जीमें। सो महा सौम्य मूर्ति धारी दयाधर्मपालक है। ऐसे गुण नववीं प्रतिमा धारक के जानना । इति नववीं परिग्रह त्याग प्रतिमा । ६ । जागे दशवीं प्रतिमाका स्वरूप कहिये है। अब अनुमति जो उपदेश सो दशवीं प्रतिमा का धारी पापा भजन-मात्र भी कहके नहीं करें। यह न्यौता नहीं माने। भोजन समय कोई बुलाय ले जाय तौ मोज़न करें। न्यौता नहीं जाय। बिना न्यौता जो मैं सो अनुमति त्यागी है । इति दशवीं प्रतिमा । १० । जागे ग्यारहवीं प्रतिमाके धारी श्रावक तिनके दो भेद हैं- एक क्षुल्लक दूसरा ऐलक । तहाँ कटि-बंधन अरु लँगोटमात्र परिग्रह राखनेहारा वन विहारी उदंड ( अनुद्दिष्ट ) आहार करें। अरु धरती बिछायकूं आसमान ओढ़वे कूं महा दयालु मुनि समान चित्तका धारी; नग्न बिना इक्कोस परिषहका जीतनहारा निर्मल आचारी कमण्डलु पोछोका राखनहारा यति समान व्रत का धारी मुनि पदका अभिलाषी इस धर्मात्मा कूं कोई सूक्ष्म जातिका अंश लिये शङ्कारूप परिणति है। सूक्ष्म अंश काम विकार के मन, वचन, कायमै, कोई जातिके मंगा लिये हैं । जो केवली गम्य हैं। आपकों भासे हैं, तातें ये नगन-मुद्रा नहीं धारै। ये सूक्ष्म काम विकार गये, यति पद लेनेके योग्य होयगा । ऐसा श्रावक, सो ऐलक श्रावक है सो यह ऐलक श्रावकका पद, तीन कुलके उपजे भव्यात्माकूं हीय है। शुद्रकं नाहीं होय है । २ । क्षुल्लक पद है सो नोच कुल. तथा ऊंच कुल दोऊ जातिकूं होय है। सो क्षुल्लकके पास, कद्दू कपड़ा मात्र परिग्रह होय । एक दुपट्टा, एक शिर फैंटा राखेँ । सो नहीं तो बहुत बारीक मुलायम, तातैं सराग भाव होंय । अरु नहीं बहुत दृढ़, तिनमें जीव पड़ें। मलिन भये र सा दीखें, ऐसे भी नाहीं। मध्यम भाव धेरै, राग रहित, ऐसे वस्त्र राख सो जे शूद्र जातिके क्षुल्लक होय । सो शूद्रके दो भेद हैं। एक स्पृश्य शूद्र, दूसरा अस्पृश्य शूद्र तहां धोबी, नाई, बढ़ई, दर्जी इत्यादिक
जिनके छूये लोकमें ग्लानि नाहीं सो स्पृश्य शूद्र हैं । २। जहां भङ्गी, चाण्डाल, चमार, कोली इन आदिक जिनके छूये लौकिक में ग्लानि होय, स्नान किये शुद्ध होंय, सो अस्पृश्म शूद्र हैं। २ । सो इन दोऊनमें तैं,
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