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कहिये है-इनने गृहस्थ अवस्था में अनेक राज्य-भोगनके भोक्ता होय, कामदेव-समान रूप धरै, संसार-भोगन
ते उदास होय, राज्य भार तजि, यति-व्रत धारचा। सो महावीतराग पद के धारी को. पूर्व कर्म उदय, शरीर में । कुष्ट रोग प्रकट्या । सो तन, जगह-जगह तें फूट निकस्य।। महादुर्गन्ध उपजी। सो यह वीतरागी, तन ते निष्प्रेम | है। आगे ही सूं शरीर कू पुद्गल-सप्तधातु का प्रिण्ड जाने आत्मा-रस रमता योगीश्वर, शरीर का उपचार कडू
नहीं वच्छिता भया। सो विहार करते, एक नगर के वन में सिण्डै। सो जब बस्ती में आहार कूजाय, सो नगर में महाधर्मात्मा श्रावक, निर्विचिकित्सा गुण के धारी, यति कों नवधा-भक्ति सहित, हर्ष सौ दान देय, अपना मव सफल माने। ऐसे वन में रहते, कई दिन भये। सो राजा का मन्त्री, एक सेठ था। जो महाधर्मात्मा प्रभात उठे वन में जाय, रोज वादिराज मुनि का दर्शन करि, धर्म सुनि, तब पीवे राजा के दरवार में जाय । सो कोऊ पापी, इस सेठ के द्वेषो पुरुष ने, जाय राजा कही--भो राजन्! इस सेठ का गुरु, कोढ़ी है। सो यह प्रथम ही उस कोढ़ी के दर्शन कुंजाय, ताके मुख ते धर्म सुनि, पीछे आपकी सेवा में आवे है। थाका गुरु महाकोढ़ी है। ताकी दुर्गन्ध आगे, कोई नहीं ठहरे। सी थे बात उचित नाहीं। तब कहीं--यह बात कुठ है। ये सेठ, हमारा ऐसा अविनय नहीं करै। तब चुगल ने कही-यामें असत्य होय, तौ जो गुनहगार को गति होय, सो मेरी करौ। तब राजा ने दूसरे दिन सेठ सूं कही हे सेठ ! क्या तेरा गुरु कोढ़ी है ? तब सेठ इसका उत्तर अविनय वचन जानि, राजासं कही-भो नाथ ! कहनेहारे नै असत्य कही है। गुरु शुद्ध हैं । तब राजानें कही-जो शुद्ध हैं तो हम प्रभात दर्शन को चालेंगे। ऐसे राजा के वचन सुनि, सेठ चिन्ता क प्राप्त भया। जो मैं राजा असत्य बोल्या, सो तौ विनय ते बोल्या। मेरे मुख तँ मैं, गुरु कौ कुष्ट है, ऐसा अयोग्य-वचन कैसे कहीं ? येसो जानि असत्य कहा। अरु प्रभात, राजा दर्शन• जाय, गुरु का शरीर प्रत्यक्ष रोग सहित देखेगा, तो यह पापिष्ठ गुरुको उपद्रव करेगा। अरु मेरा मरण भया ही है। परन्तु गुरु की उपसर्ग नहीं होय तौ मला है इत्यादिक प्रकार सैठ महाचिन्तावान होय पीछे वन में गुरु के पास गया। सो मुनीश्वर ज्ञान-मरडार कही-भो वत्स! तेरा मुख चिन्तावान्-उदास क्यों ? अरु तूं प्रभात आया था सो अवार आवने का कारण कहा ? तब सेठ ने गुरु के पास राणा के बावने की सर्व कथा कही-अरु विनती करी कि यह राजा महार स्वभावी है। सो मोकू मारेगा तो मारौ। परन्तु