Book Title: Sudrishti Tarangini
Author(s): Tekchand
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 604
________________ समाधान-जो भगवान के, च्यारि अघातिया कर्म बैठे हैं। तिनके कारण पाय, वासी खिरना, उठना, बैठना, चलना, डग भरना आदि क्रिया संभव है। यामें इच्छा-बिना किया होय है, यात दोष नाहीं। ऐसा जानना। ऐसे तो भगवान का विहार होय। मुनि आर्यिका, श्रावक नाविका, च्यारि-प्रकार संघका विहार, भूमि विर्षे होय है। कैसी है भूमि, सौ बीथी ( मार्ग) रूप है सो खोथोके दोऊ तरफ तो कोट हैं। ताके मध्य, एक योजन लम्बी, आध योजन चौड़ी रास्ता समान, देवन करि रची हुई, महा शौभायमान, रमणीय, निर्मल स्थान आप गली है सो देव, विद्याधर, चारण-मुनि, और सामान्य केवली तो आकाशमें गमन करे हैं। सो नहीं तो भगवान से अति नजदीक, नहीं अति दूर, यथा-योग्य स्थान गमन करे हैं। सो इन्द्र हैं तै तौ भगवान के नजदीक, भक्ति सहित चले जाय हैं। और सामान्य, चार प्रकारके देव हैं। सो दूर चले जाय हैं। सो केई देव तौ, चमर टोरते | जांय हैं। केई देव जय-जय शब्द करते जोय हैं। केई देव, चौबदारकी नाई, हाथमें रत्र-छाड़ी लिये, देवना चलै-चलो. चले-चलो, कहते जांय हैं। देवोंके समूहकों विनय तें, सिलसिले से लगावते हैं। इत उत करते जाय हैं 1 और केई देव, भगवानकी स्तुति करते जोय हैं । केई देव वन्दना नमस्कार करते जांय हैं। केई हर्षक भरे कौतूहल करते जाय हैं। और ऐसे ही मनुष्य तिर्यंच, भूमि विर्षे, हपते चले जोय है। केई भव्य, भगवान की तरफ देखते जाय हैं । इत्यादिक विहार समय, अनेक शुभ कार्य होंय हैं। सो सर्व व्याख्यान, विशेष ज्ञानीक गम्य है। हमारी शक्ति सर्व कथा कहनेकी नाहीं। ऐसे विहार-कर्मका कथन किया। सो मागू भगवान् जहाँ जाय विराजेंगे. तहां इन्द्रादिक देव, समोवशरणको रचना पूर्वोक्त रचें है। ता विषै, भगवान । हार कार, जाय विराजें हैं। तिन मगवानकुं, हमारा नमस्कार होऊ। ये जिनेन्द्र देव, इस ग्रन्धके अन्त-मङ्गलकू करह । ___इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम अन्य के मध्य में अन्त-मङ्गल निमित्त अरहंतदेवकं नमस्कार पूर्वक समवशरण कपन, विहार-कर्म कथन करनेवाला चालीसा पर्व सम्पूर्ण भया ॥४॥ आगे और भी अन्त-मंगलके निमित्त, भगवानके महा भक्त, स्तोत्रनके कर्ता आचार्य, तिन कूनमस्कार करिये है। तहां प्रथम श्री वादिराजनाम बाचार्य, जिन-धर्मके उद्योत करवेकू सूर्य समान महा तेजस्वी, एकी|| भाव स्तोत्रके कर्ता, तिन कू नमस्कार होऊ । वादिराज मुनिने, जा कारख पाय एकीमाव स्तोत्र किया, सो 8244

Loading...

Page Navigation
1 ... 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615