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व्रत की महिमा बताइये है-- गाथा-मदणो मद गय मंभव, अंकस सिर दाग लाग वस करई । मण कपि वस कर फबई, अंभो वय-एय गेय णियमेण ११४९॥
अर्थ मदलो मद गय थंभउ कहिये, मदनरूपी मदोन्मत्त हस्ती ताके जीतवेकू। अंकस सिर दाग लाग वस करई कहिये, शिर में अंकुश के दाग लगाय वश करने समान । मग कपि वस कर फंदई कहिये, मनरूपी बन्दर के वश करनेकौं फन्द समान । वंभो वय एय गेय शियमेण कहिये, एकही ब्रह्मचर्य व्रत नियम से जानना । भावार्थकामरूपी मदोन्मत्त हस्ती, महाबलवान् सो ताके जीतवे• इन्द्र, देव, चक्री, कामदेव, नारायस, बलभद्र, कोटीभटादि महापुरुष, बड़े-बड़े बैरीन के जीतवे कुंबलवान, इनको आदि बड़े-बड़े सामन्त, ते भी इस कामरूपी | हस्ती के वशी करनेकं असमर्थ भये। ऐसे कामरूपी हस्ती के वशीकरवेक, ये शोल-भाव है, सो अंकुश के दाग समान है। कैसा है शील-भाव ? सो मनरूपी बन्दर के बांधवैकं, लोहे की सांकल समान है। इनकों आदि अनेक गुण सहित, शील-भाव जानना। आगे और भी शोल-व्रत की महिमा कहिये हैमाथा---गय बार कपाटो, अवंभ तक छेद सीच्छ फुलहारो । सिव गएछत सुह सुकणो, इन्दी मिग बाल बंभ बताये ॥१५०1
अर्थ-कुगय बार कपाटो कहिये, ५ ब्रा-माय कुगति द्वारका कपाट समान है। अवंभ तर छेद तीच्छ कुठहारो कहिये, कुशीलरूपी वृक्ष के छेदनेक तीक्ष्ण कुठार है। सिव गछछत सुह सुकणो कहिये, मोक्ष चलवेकू, शुभ शकुन है। इन्दी मिग जाल वंभ बताए कहिये, इन्द्रियरूपी मृग के पकड़वेकं ये ब्रह्मचर्य, जाल समान है। भावार्थ-यह ब्रह्मचर्य व्रत है. सो कुगति जो नरक-तिर्यञ्च गति, तिनमें नहीं जाने देयनेकू कपाट समान है और कैसा है शील-व्रत ? जो कुशीलरूपी बिकट वृक्ष सो आर्त-रौद्र-भावरूप कांटैन सहित भाकुल-मावरूपी छाया का धारी, अपयशरूपी फूल करि फूल्या, नरक तिर्यश्च गति हैं, फल जाके ऐसा कुशील वृक्ष, ताके छेदने कू शोल-भाव तीक्ष्रा कठार समान है। बहुरि कैसा है शोल-भाव ? जैसे-कोई बड़े लाभ निमित्त द्वीपान्तर जाते. भलै शकुन होय। तौ जाते ही कार्य सिद्ध होय । तैसे हो मोक्षरूपी द्वीप के गमन करनेहारे यतीश्वर तथा और भव्य श्रावक, तिनको शुद्ध शील व्रत का मिलाप, भले शकुन समान है। बहुरि कैसा है शील-भाव ? जैसे—काह का तैय्यार मया धान्य का खेत है। ताकी उद्यान में मृग उजाड़े हैं, खाय जाय हैं । तिन मृगों कों, स्याना खेत का