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कामदेव, बलमद्र, मण्डलेश्वरादि महान् ऋद्धि के धारो बड़े-बड़े राजा, इन सर्व देव-मनुष्यन करि पूजनीय है। शोल-भाव कैसा है ? जाका यश तीन लोक के प्राशी गावें हैं। बहुरि शील-भाव कैसा है ? जन्म-मरण दुःख का नाश करनहारा है इत्यादिक अनेक गुण सहित, यह शील व्रत है। ताकी रक्षा करना योग्य है। बागेशील का माहात्म्य और बताइये हैगाथा-सिंहण दाषा करई, चंपय पद गाग दाग नह होई । वण वारण मिग जायो, यह फल सीलोय होय गियमेण ।।१४६॥
अर्थ-सिंहण वाधा करई कहिये, ब्रह्मचारी की सिंह बाधा नहीं करें। चंपय पद नाग दाग राह होई | कहिये, पांव के नीचे नाग आवे तो भी नहीं काटें। वण वारण मिग जाथो कहिये, वन का हाथी मृग समान हो माय । यह फल सीलोय होय शियमेरा कहिये, ऐसा फल नियम से शील व्रत का होय है। भावार्थ-जहां भयानक आकार, तीक्ष्ण हैं नख अरु दाँत जाक, काल-पुत्र समान विकराल, भयानक रूप ऐसा नाहर, उद्यान में शीलवान को नहीं सतावे और काल समान विकराल, फण का धारी, विष का समूह, जाके मुख तें निकसे है अग्रिवत हलाहल विष-ज्वाला, मणिधारी, ऐसा भयानक नाग, शीलवान् पुरुषन के पांव नीचे दखि जाय, तो इल्लो समान दीन होय जाय । शोल के माहात्म्य करि, पीड़ा नहीं कर और महाउद्यान में वन का मदोन्मत्त हस्ती, स्वेच्छारूप वर्तता, अपनी लोला करि बड़े-बड़े वृक्ष तोड़ता नदी-सरोवर का जल विलोलता, काल समान मेयानक वर्षा-काल के मेघ समान गर्जता दीर्घ शब्द करता, अञ्जनगिरि समान ऊँचा मेघ-घटा समान श्याम वर्ण का धारी हस्ती तें गहन वन मैं भेंट हो जाय तो रोसा भयानक गयन्द शील के माहात्म्य करि ब्रह्मचारी • बाधा नहीं करें। मृग के समान सरल हो जाय इत्यादिक फल प्रगट करनहारा उत्तम शोल-गुण है। तातें ऐसे शील-गुण की रक्षा करना योग्य है। आगे और भी शोल-गुरण का माहात्म्य कहिये है'गावा-सुर सुह कर सिब करक, वहणी णिज पतम होय टुंह सामों। सुर-तरु दहुदा सुह दय, गहणोअण साय वंभ वय करई ॥१४॥
अर्थ--सुर सुह कर कहिये, स्वर्ग का सुख करनहारा सिव करऊ कहिये, मोत करनहारा वहणी णिज पतण होय दह सामो कहिये, शीलवान का अग्नि में पड़ना होय तो यह दुःख भी शान्त होय। सुर-तरु दक्षदा सहदय कहिये, दश प्रकार कल्पवृत्त के सुख का दाता है। गहलो वस साय वंभ वय करई कहिये, ब्रह्मचर्य
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