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मोक्षाभिलाषी जीवन कं, मोक्षके कारण रूप शील की ही रक्षा करनी चाहिये। आगे और भी शील गुण की महिमा कहिये हैगाथा-सोपाणो सिब गेहो, सिव तिय सावण दूत सम । पारा भूषण पास, वि. जासभ गुप..६४४॥
अर्थ-सोपालो सिव गेहो कहिये, ये ब्रह्मभाव मोक्ष मन्दिरके चढ़ावे को सोढ़ी समान है। सिव तिय लावण द्वत सम जोई कहिये, मोक्ष रुपी स्त्री के ल्याव को चतुरद्तो समान है। धम्मा भवरण भरणर्य कहिये, ये धर्मका आभूषण है। सिव दीयो जारा वम्भ गुण गेयो कहिये, शिव द्वीपके पहुंचावे-कों ब्रह्मचर्य वाहनसमान है। भावार्थ-जैसे मन्दिर पै जाय, सो सोढ़ीन परसे जांय हैं सो मोक्षमहल, अद्भुत सुखका स्थान है। सो लोकके शिखर पर है। मध्य लोक तें. सात राज ऊंचा है। तहां चढ़वे कुं शीलव्रत सीढ़ी समान है। इस शील रूप पैटोन की राह चढ़नेहारा भन्य, सहज ही में मोक्षमहलमें पहुंचे है। जैसे दूती, परस्त्रोन कुं शीघ्र ही मिलावै । तैसे मोक्ष रूपी स्त्रीके दिलावे कू, ब्रह्म दूतीसमान जानना। जैसे आभूषण करि तन शोभा पावै । तैसे धर्म के जेते अङ्ग हैं। दान पूजा, जप, तप, त्याग, चारित्र, इन आदि जे जे धर्म अङ्ग हैं । तिनके भले दिखावै कू, शोभायमान कू शील गुण है सो आभूषण समान है। जैसे कोई देशांतर जावे कू रथ, गाड़ी, सुखपालादि असवारी, सुख ते परदेश लेय जाय हैं। तैसे ही शिव द्वीपके पहुंचावे कं, शील-गुण है सो यान कहिये असवारी समान है। ताते इस शोल गुणकी रक्षा करनी योग्य है। आगे शील गुण की और महिमा कहिये हैगाथा-मोख तर दिठि मूलो, खग देव गरय पूज्य असुरायो। सिभवण घर जस करई, हरई भव दुःख वंभ बाताये ॥१४॥
अर्थ-मोख तरु दिठि मूल कहिये, ब्रह्म-भाव मोक्ष-वृक्षको जड़ है। खग देव रणरय पूज्य असुरायो कहिये, विद्याधर, देव, मनुष्य और असुरन करि पूज्य है। तिभवण चर जस करई कहियो, तीन लोकके जीव । ताका यश गावै हरई भव दुक्ख वम्म वाताये कहिये, संसारके दुःख कू ब्रह्मचर्य मैट है। भावार्थ-यह शील व्रत है सो मोक्ष रूपी वृक्षकी जड़ है। जैसे वृक्षकी जड़ नहीं होय, तो वृक्ष नहीं ठहरै। अल्प-कालमें क्षय होय। सैसे ही शील-भाव रूपो जड़ नहीं होय, तौ मोक्ष-रूपी कल्प-वृक्ष नहीं रहै। बिनशि जाय । बहुरि यह शील-भाव कैसा है ?विद्याधर, राजा, ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी, कल्पवासी ये च्यारि प्रकारके देव, चक्री, अर्थ-चक्री,