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लैय सो देख कर लेय। घौसके नहीं रोष : तन कहीं पर तो देखके धरै। धरती बिना देखे नहीं धरै। मल-मूत्र अपने तनका डार सो जीव रहित स्थानमै देख शोध डारे। इत्यादिक शुद्धता सहित रहना, सो सातवा समिति गुण है। ७। आठवां शील गुण सो पर-स्त्री विर्षे विकार बुद्धिका त्यागी होय। निज स्त्रोके संभोग विर्षे. संतोषी होय। अल्प निद्राका करनहारा होय । अल्प निद्रा होय तो प्रमादी नहीं होय । दीर्घ निद्रा करे तो अपने गुणन के कलंकित करें। अल्प आहारी होय । बहुत भोजन करें तो शील कौ दुषरण होय । काष्ठ पाषाणादिको स्त्री देख विकार रूप चित्त नहीं करें। इत्यादिक शोलभाव राक्षे, सो आठवी शील गुण है।८। त्याग नवा गुण है। सो कुटुम्ब परिग्रह और शरीरमें मोहका त्यागी होय। अनरंजन भाव होय। मंद मोह को लिये सरल चित्तका धारी होय । चिन्ता शोक भय करि रहित होय । बड़ा दानी होय। इत्यादिक गुण सो त्याग गुण है।। रोसे कहे नव गुण सहित जो होय सो तिस भव्यात्मा कौ यज्ञोपवीत फलदाई होय । इन गुरण बिना यज्ञोपवीत राखें तौ परभव कौ दुषित करै। प्रायश्चित्तका धारक सत्पुरुष ब्रह्मचर्यका धारी तिन करि निंद्य होय । दुस पावै। जैसे मन्त्रका जाननहारा सर्प राखें । तो निर्दोष है। बिना मन्त्र जानै सर्प राखे। तौ दुखी होय। ऐसे कहे गुण प्रमाण यज्ञोपवीत राखै तौ शुभ उपजावै नाहों दुख उपजायें। ऐसा जानि गुण सहित यज्ञोपवीत राजै। सो क्रिया ब्रह्म है। आगे इन ही श्रावकनके भोजन समय सात अन्तराय होय हैं। सो कहिये हैं। प्रथम नाम जहां कौड़ी आदि निर्जीव हाड़ देख मांस पिंड देखें रोद्र धार देखें भोजन करते थालमें जीव पतन होय पंचेन्द्रियका मल देखे कच्चा पक्का सूखा चमड़ा देखें व स्पर्श और तजी वस्तु भोजनमें शई। रैसे सात अन्तराय हैं सो इनका निमित्त मिले तो दयावान् कोमल चित्तका धारी प्रावक भोजन तज। ता दिन अनशन करै। जब से
अन्तराय भया तब तैं अन्न जल नहीं लैथ। ऐसा जानना। आगे ये क्रिया ब्रह्मके पालने योग्य सत्रह नियम हैं। | सो कहिये हैं
गाथा-भोयण षड़ रस पाणो, लेप पुखोय गीत तंबोलो । णित अवंभ सणाणो, आभूषण पट्ट पम्माणो । १५४॥
अर्थ---भोयण कहिये, भोजन । षड रस कहिये, षट रस। पाशो कहिये, पान करने योग्य जलादिक । लेय कहिये, लेप करने योग्य वस्तु । पुखोय कहिये, पुष्य। गीत कहिये, राग। तंबोलो कहिये, नागर पान।
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