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अल्प प्रगट करें। ते धर्मात्मा धीर-बुद्धि हैं। तैसे ही पराये दिखायवै के, परके रंजायवै कौं, भोले जीवनका मान हरखे कं, अपने पद-नमावे कौं, ते पाखण्डी अपने कुज्ञानकी प्रबलता से अनेक धर्म-सैवन के स्वांग धरि
जप, तप, कथा तो वचन-आडंबर से बहुत कर। अरु इन परमार्थ-शन्य प्राशीन ते, बनै कछू भी नाही। सो मु । जीव तौ धर्मात्मा नाहीं। जरा धर्मार्थी भी नाहीं। जे जगत-यश ते उदासी, जिनने तोड़ी ममता फांसी, ते अल्प
कालमें शिव जासी। स्वर्ग–सम्पदा होय जिन दासी। मिथ्यादृष्टी तिन नाशी। वह भव्य सुखराशी। ऐसे निकट संसारी, धर्मका सेवन तो बड़ा करें। अरु अपनी महिमा नाहीं चाहूँ। सो धर्मात्मा हैं। तातें तुम विचारौ-देखो जे जीव अल्प से भी धर्म-सेवन कौं उत्कृष्ट जानि, पाप तैं भय खाय हैं। ते जीव ही विषय-कषाय कौं तजि, शुभाचार रूप परणमैं हैं। केई घर-स्त्रीका त्याग करें। कई दिनका भी भोजन तजि, उपवास करें। केई जन्म पर्यन्त, स्त्री-विषयका त्याग करें। कैई भव्यात्मा. रात्रि-जलका भी त्याग करें हैं। इत्यादिक प्रवृत्ति भोले शीत धर्मानरागमैं हैं। तो रहे सगता -साकेनया, जिनका दर्शन-मोह गया, तब सम्यक्त्व घर भया। भेद-ज्ञान तब लया। तब ऐसा भाव भया, विषय-मोग विषमयो। गुणस्थान चौथा लया। पर सेती भिन्न भया। विषय-राग तब गया। समता भाव परिगया। बाह्य विषयी सा रह्या। बाकी अंतरंग भेद भया। ऐसे जिन-प्राज्ञाप्रमाण, तस्वके वेत्ता भव्य, अव्रती होय हैं। सो विषधन से विरक्त रहैं हैं। येही रात्रि-भोजन नहीं करें। दिनमें कुशील नहों से। तो हे भव्य ! जे पंचम गुणस्थान धारी, व्रती श्रावक हैं। सो प्रथम, द्वितीय, तोसरी, चौथी प्रतिमा, पांचवीं प्रतिमाका कथन, इनका त्याग, इन प्रतिमाओंकी क्रिया-प्रवृत्ति, इनके धारी धर्मीश्रावक तिनकी वैराग्य दृष्टिका रस, सो तो नीके कधन करि पाये हैं। सो नीके सुन्या ही है। सो अब तूं विचार दैखि ! जो नीची प्रतिमा विष स्त्रीका भोग, अरु रात्रि भोजन कहा रह्या ? ये छद्रम प्रतिमा धारी श्रावक महा उदासीन वृत्तिका धारी, वैरागो, बड़भागी, इनको इतना विषय-रस नाहीं, जो दिनमें स्त्रीका भोग होय । महा धर्मात्मा हैं इन्हें रात्रिकाल विः सो स्त्रीका ही नाम मात्र संतोष है तृष्णा रूप नाहीं। ऐसा मानना। ये धर्मो, दिवस विष ही एक दिनमें एक बार ही, अल्प रस भोजन करनहारा, ताके रात्रि-भोजन कहाँ पाईरा? परन्तु जिनदेवको रोसी आज्ञा है। जो यहां पांचवीं प्रतिमा ताई, कोई प्रकार अतिचार लागै था। इस भय ते