________________
बहुत परिग्रह का त्यागी चाहिये और ब्राह्मस, अपने से ही होन आचारी, ऐसे हीन देव, हीन गुरुका नाही सेवे, जैसा आप दयावान् है, शीलवान समता भावी है, तातें भी अधिक वीतराग देव गुरु होय, ताकी सेवे और जैसा आप पुत्र, स्त्री, कुटुम्ब, परिग्रह के योगते, क्रोधी, मानी, दगाबाज, लोभी है। ऐसा ही क्रोध, मान आदि दोषोते भर या जो देव गुरु, ताळू नहीं सैवै । जाको सेवे, सो परीक्षा करि सेवै । अपने जैसे रागी-देवी, पर-स्त्री, धन, वाहनादि परिग्रह धारी, देव गुरुकों नहीं सेवे। सर्व दोष रहित, वीतराग, सर्वज्ञ, प्रारम्भ परिग्रह, स्त्री, धन, घर रहित देव-गुरु की सेवा करै । हीन देव गुरुकों नहीं सैवै तो वर्मोत्तम नाम तीसरा अधिकार है।३माहाश में की अधिकता है ताते या पात्रत्व-भाव है, ये पात्र हैं मादरतें दान देने योग्य है अरु बड़े पुरुषन करि, माननीय है । तातें विवेकी ब्राह्मराक, गुश बधावना योग्य है। ये शील, सन्तोष, दया, क्षमा, निर्लोभादि उत्तम गुण करि तो पूज्य है अरु इन गुण बिना, महापुरुषन करि, मानने योग्य नहीं. होय । बड़े-बड़े राजा गुणी जन ते अनादर पावै। पण्डितन की सभा में जाय, लजा पावै। तातें ब्राह्मणको दान, पूजा, जप, तप, संयम, शील, दया, सन्तोषादि अनेक-अनेक गुसन का संग्रह करना योग्य है। याका नाम-पात्रत्व नाम चौथा अधिकार है।४। और जहाँ श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, तिनकौं मिथ्या श्रद्धान तणि के, सर्वज्ञ देव-केवली माषित पदार्थन का श्रद्धान करना योग्य है। कोई सामान्य ज्ञान के धारनहारे मानी जीवन ने, अपना मान पोषवेकों भोले जीवन के बहकावेकों, अपनी इच्छा करि, कल्पित शास्त्र बनाये। तिनमें तीन लोक का स्वरूप यथार्थ कह्या तो तीन लोक का प्रमाण तुच्छ कहा। सो कोई तो भोले भव्य ऐसा मानें। जो लोक की रक्षा, निरन्तर भगवान् करें। नहीं तो कोई चोर या सर्व लोककौं चुराय वस्त्र में समेट लैय जाय। तातें भगवान् सदैव रक्षा करे हैं और कोई कहें हैं। जो काहू कर्ता ने लोक बनाया है ! सो कबहूँ काल पाय, क्षय भी होयगा। ऐसे कल्पित विकल्प करि लोक स्वरूप कहें हैं। सो असत्य है, ताके भेद को जाने और सर्वज्ञ केवलो करि
कह्या लोकाकाश रूप-अनादि, अकृत्रिम, अविनाशी, ध्रुव, पुरुषाकार सो सत्य है। ताके भेद कू जाने। ૧૨૨ | | शुद्ध केवली के भाषे लोक का श्रद्धान करें। मिथ्या कल्पित लोक के स्वरूप का श्रद्धान् तणे और भी जीव
| अजीव का प्रधान सहित शुद्ध सम्यग्ज्ञान का धारी, ब्राह्मण चाहिये और जो बाप के भी यथार्थ दर्शन-मान नहीं