________________
-
---
--
५२९
सो ताके दोय भेद हैं। एक ब्रह्म, दूसरा पर-ब्रह्म। तहां कर्म-मल सहित, जन्म-मरण का धारो, चारि गति वासी। जीव, सो ब्रह्म है। राग-द्वेष का धारी, इष्ट वस्तु मिले सुखी होय, अनिष्ट वस्तु मिले दुखी होय, सो तो ब्रह्म जानना। भूख-तृषा नाम रोग जाकै उपजता होय, सो ब्रह्म है। ३। जन्म-जरा-मृत्यु रहित होय, अमूर्ति, सर्व दुखदोष रहित, केवल-ज्ञान का धारी अन्तर्यामी होय, सो पर-ब्रह्म है। ऐसे स्वभाव-ब्रह्म के दोय मैद जानना।२।। यहां ब्रह्म नाम आत्मा का जानना ।श दूसरा ब्रह्म, सातवों प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी, स्व-पर-स्त्री का त्यागी, ताका कथन-ऊपरि करि आये सो याका पद अनुक्रम ते, प्रथम प्रतिमा तें लगाय, सातवी प्रतिमा पर्यन्त, ज्यों-ज्यों त्याग बध्या, त्यों-त्यों प्रतिमा चढ़ी। ताते याका नाम त्याग-ब्रह्म है ।श तीसरी क्रिया-ब्रह्मचारी, ताके जानवेकों उपासकाध्ययन के सातवें अङ्ग ताके अनुसार, बड़े आदिपुराराजी विर्षे दश अधिकार कहे। ताके अनुसार कारण पाय, यहां भी लिखिये हैगाथा-सिसि विद्याय कुलाविधि, वण्णोत्तम पात सेम विवहारो। अवधा अदंड मणनीयो, पज्जा सम्मधाण यह भयो ॥१४२॥
अर्थ-सिसि विद्याय कहिये, बाल विद्या। कुलाविधि कहिये, कुलाविधि । वरणोत्तम कहिये, वर्णोत्तम । यात कहिये, पात्रत्व । सेय कहिये, श्रेष्ठ पद । विवहारो कहिये, व्यवहार सत्ता। अवधा कहिये, अबध्यता। मदण्ड कहिये, अदण्डता । मणनीयो कहिये, माननीयता । पजा सम्मधारा कहिये, प्रजा सम्बन्धान्तर । दह भयो कहिये, ए दश भेद हैं। भावार्थ बाल विद्या, कुलाविधि, वर्णोत्तम, पात्रत्व, श्रेष्ठता, व्यवहारता, अबध्यता, प्रदण्डता, माननीयता और प्रजा सम्बन्धान्तर–दश हैं। जो जीव इन दश क्रियान करि सहित होय सो क्रियाब्रह्म है, सो हो विशेष कर कहिर है । तहाँ बाल्यावस्थाते ही विद्या का अध्ययन करि, पण्डित होय । तो शुभाशुभ मार्ग जाने, स्वाद्यास्वाद्य जान, पाप-पुण्य का भेद जानै । कई अज्ञानी-कुवादी आपकों शुद्ध धर्म ते डिगाय, विषयी, मोही, हिंसक धर्म विष लगाया चाहैं तो नहीं लागे । पाखण्डीन के ठगने में नहीं आवै । ताते तीन कुल का उपज्या, भव्य का बालक होय, सो विद्याभ्यास करै । अरु विद्या नहीं पक्या होय, तो आप कुधर्म-सधर्म को परीक्षा नहीं कर सके। तब अपना भला-धर्मा बिगाडै । अरु अज्ञान भया, खाद्याखाद्य न समझ के, अभक्ष्य का भक्षण करि, अपनी बुद्धि नष्ट करें। विद्या
५२१
६६