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करें। सो सर्व जीव आप समानि जानि,ये त्रस-हिंसाका त्यागी श्रावक, यत तें करें। कैसा है धर्मी श्रावक ? निरंतर समता सहित काल की व्यतीत करने की है इच्छा जाकें। निराकुल परिणति सहित, शान्ति रसका
अभिलाषी। षट् काय जीवन अभयदान देने को है अभिलाषा जाकैं। ऐसा धर्मात्मा श्रावक भव्य, तन-धन तें उदास होय, सल्लेखना व्रत धारै सो कैसे धारै? सो कहिये हैं। तहां प्रथम तो सर्व जीवन तें समता-माव करें। पीछे अपने तन, धन, राज्य लक्ष्मी, इन्द्रिय-सुख कुटुम्बी, सजन तिन सर्वत मोह-ममता भाव तज, सन्यास धारै सो कब धारै ? सो समय कहिये हैं। के तो यह धर्मात्मा अपना आयु-कर्म नजदीक आया जाने, तब सन्चास धार या शरीरमें कोई तीव्र रोग जाने तब। तथा शरीर पै कोई दुष्ट पशु सिंह-सादिक का उपद्रव जान तब सल्लेखना करें। कोई कारण पाय, राजादिकका तीव्र कोप जाने, इत्यादिक दीर्घ उपद्रव जाने, तौ सल्लेखना करे सो ता समय यह श्रावक शेसा विचारै, जो इस उपद्रव त बच्या तौ अन्न-जल ग्रहण करूंगा नहीं तो अन्न-जलादिकका त्याग है। ऐसी प्रतिज्ञाका धरना,सो तो सागार सन्यास है। अपने बचनेका उपाय कछू नहीं भास, तौ अनागार सन्यास करें। उपसर्ग तौ नहीं, परन्तु अनन्त संसार भोग ते उदासीन काय धरने ते आकुलित होय के, मनिपद धरनेकं असमर्थ, नहीं पाया है यतिपद धरनेका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव जाने सो भव्यात्मा. अपने तन ते निष्प्रिय होय, काय त्यजनेका उपाय शनैः शनैः करै है । सो ही कहिये है। प्रथम तौ जात अपने परिणामनकी विशद्धता बध, संक्लेश भाव नहीं होंय, रोसा तप करें। राकांतरे करे, पीछे एक-एक उपवास साथै । पीछे दोय-दोय उपवास साधै। ३, ४, ५, उपवासका साधन करे। पीछे पारगाके दिन अल्प आहार लेय-ऊनोदरी साधै। ऐसे केतक दिन करि, पीछे रसत्याग साधै। पीछे केतक दिन गये नम भोजन, पीछे पतला दलिया, पीछे भातका पान, पीछे अन्न तणि दुध, पीछे दुध तजि दही। पीछे दही तजि, मही। फिर महो तज, जल राखै। ऐसे करते-करते अनुक्रम तैं, जब काय त्यजनेका समय नजदीक जानें तब अपने सज्जन-कुटुम्बी जन बुलाय, उन मोह घटावैके निमित्त हितोपदेश देय, महा हित मित वचन कहि, उन्हें संतोषित करें। पीछे यह सम्यग्दृष्टिका धारी, जगत तें उदासी आत्मा, शरीरको भिन्न अवलोकनहारा, सर्व जीवनकों सस चाहता ऐसा विचारै-जो सर्व जीव साता पावें। कोई भी प्राणी, दुखी मत होऊ।