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कथन, अतिथि संविभाग व्रतका है। तातें अपने भोजन में अतिथिका संविभाग करना, सो अतिथि संविभाग व्रत है । याके पांच अतिचार है। सो हो कहिये हैं। नाम सचित्त निक्षेप, सचित्ताविधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम । इनका अर्थ — जहां भोजनकी वस्तु, सचित्त वस्तु वै धरी होय । सो सचित्त निक्षेप नाम अतिचार है । २ । जहाँ भोजनकी वस्तु, सचित्त वस्तुसे ढांकी होय । सो सचित्ताविधान नाम दोष है । २ । जहां भोजन समय मुनीश्वर आरा जानि, औरकों कहै, जो मोकं काम है। तुम मुनिकों आहार देय लेना। ऐसा कहिकैं, अन्य से अपना भोजन दान करावना । सो पर व्यपदेश नाम अतिचार है। ३ । जहां और अन्य दातारका दान नहीं देख सकें । तथा अपने भावः मत्सर सहित राख दान देवे, सो मात्सर्य दोष है । ४ । जहां भोजनका काल उल्लंघि जाय। आप अपने घर-धंधे में लग गया सौ प्रयोजनके वशीभूत होय, मुनीश्वरके भोजनका काल उल्लंघि दिया। पीछे सुचिताईमें याद आई। तब द्वार-पेक्षरा क्रिया करी, सौ कालातिक्रम नाम अतिचार है । ५ ऐसे पांच अतिचार रहित होय, सो शुद्ध अतिथि संविभाग नाम व्रत है । ६ । ऐसे पांच अणुव्रत, तीन गुराव्रत और च्यारि शिक्षाव्रत । ये बारह असुव्रत ( देश व्रत ) भये। एक-एक व्रतके पांच-पांच अतिचार सर्व मिलकर साठ भये । सो ये व्रत प्रतिमाधारी सम्यग्दृष्टि, सो ताके सम्यक्त्व कौं पोच अतिचार नहीं होय । सो ही कहिये हैं। शेका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और अन्य दृष्टि संस्तव । इनका अर्थ - जिनवाणीमें कहे जे धर्म- जंग, तिनके सेवन में शंका राखना। सो शंका नाम अतिचार है । २ । जहाँ धर्म सेवनमें इस —भव संबन्धी वांच्छा तथा परभव सम्बधी वांछा करनी, सो कांक्षा दोष है । २ । जहाँ धर्मात्मा मुनि श्रावकादिक निर्मल दृष्टिके धारी पुरुष के तनमें रोग देख, तन मैल तैं लिप्त देख, मुख वासना देख, इत्यादिक रोग देख ग्लानि करनी । सो विचिकित्सा दोष है । ३ । जहां मिथ्यादृष्टि जीवनके गुण देख, बारम्बार यादकर, प्रशंसा करनी । "ते गुण भले जानना। सो अन्यदृष्टि प्रशंसा नाम दोष है। ४ । मिथ्यादृष्टिकी अपने वचन हैं स्तुति करनी, सो संस्तव नाम दोष है ।५१ ऐसे पांच अतिचार रहित सम्यग्दर्शन सहित जो व्रतका धारी, कोमल चित्त सहित, दया भडार, संसार हैं उदासीन, पाप तैं भयभीत होय, व्यारि गति बास दुखदाई जान, तन धरने व मरने तैं दुखी भया है मन जाका, जो मोक्षाभिलाषी, अजर-अमर पदका लोभी, धर्मात्मा ! जो अपने मन-वचन-तन है क्रिया
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