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सहित] है । ताका नाम त्यक्त कया है । सो ये त्यक्त शरार, महाउत्तम मुनि तथा श्रावक का होय है। ताके तीन भेद हैं। उनके नाम-भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन | इनका अर्थ-तहां भोजन का त्याग करै, सो जघन्य तौ अन्तर्मुहूर्त काल भोजन कौं तजैं । अरु उत्कृष्ट बारह वर्ष लूं अनशन करें। मध्यम के अन्तर्मुहूर्त लगाय, एक-एक समय अधिक, उत्कृष्ट बारह वर्ष पर्यन्त के अनेक भेद हैं। सो ऐसे भोजन का प्रमाण सहित – अनशन करि शरीर तजैं, सो भक्त प्रतिज्ञा संन्यास सहित शरीर है |१| जा शरीर तजतें, संन्यास करनेहारे के शरीर में, तप के योग तैं कदाचित् खेद होय तो अपने शरीर का वैयावृत्त्य आप ही अपने हाथ तैं करें शिष्यादिक तैं नहीं करावें। भक्त प्रतिज्ञावाला संन्यासी, शरीर में खेद भये अपने हाथ अपने पांव, पीठ, शीश आदि अङ्गोपाङ्ग दाब लेय था और शिष्यादिक तें भी अङ्गोपाङ्ग दबाव था। अरु जो परतें वैयावृत्य नहीं करावे, अपने हाथ तैं अपना वैय्यावृत्त्य करै सो इंगिनी संन्यास सहित शरीर है |२| नहीं तो आप करै, नहीं और पै संन्यास में वैय्यावृत्य करावे । सन्यास लिये पोछे जो-जो उपद्रव खेद-दुख शरीर पै आवें सा समता सहित एकासन सहै । शरीर कौं चलाचल नहीं करें। संन्यास धरतें जैसा आसन सूं, जनांति बैठा था, ताहो तरह जीवन लूं रहे । हाल-चाल नाहीं । यह प्रापोपगमन संन्यास सहित त्यक्त शरीर है । ३ । ऐसे इन आदि संन्यास के अनेक भेद हैं। जो भव्यात्मा, जन्म-मरण करि डरचा होय तिस निकट संसारी कौं ऐसे सन्यास सहित काय तजवे को मिले है । जे दीर्घ संसारी, मोही, धर्म-वासना रहित
तिन जीवन के ऐसा मरण नाहीं होय । ऐसा जानना ।
इति श्री सुष्टि तरङ्गिणो नाम ग्रन्थके मध्य में, धावकको एकादश प्रतिमा विषै, सम्यक् सहित बारह व्रत कूं लिये, सल्लेखना व्रत मिलाय इन चौदहकै पांच-पांच अतिचार सहित, दुसरी व्रत प्रतिमाका कथन करनेवाला चौंतीसवां पर्व सम्पूर्ण ॥ ३८ ॥
आगे तीसरी सामायिक प्रतिमा का स्वरूप कहिये है
गाथा -- सद्रु चर किष्पा भावो, तब संजय बरत भाव बधवाए । आरदि रुद्द विहीणो, सामायो तस भासयो सुत्त ॥ १४० ॥
अर्थ- सहु चर किप्पा भावो कहिये, सर्व जीवन पै क्षमा भाव। तव कहिये, तप । संजय कहिये, संयम वरत कहिये, व्रत । भाव बधवारा कहिये, भाव वृद्धि होय । आरदि रुद्द विहीणो कहिये, आर्त्त-रौद्र-ध्यान से
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