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ऋतु उष्ण है। तथा शीत है। तथा मध्यम है। इन मुनिकी ऐसी प्रकृति है। इन्हें ऐसा भोजन रुचे, ऐसा नहीं रु। ऐसा द्रव्य, क्षेत्र, काल भावका विचार करि, मुनीश्वरकों भोजन देने में प्रवीणता 1 सारो दान की विधि जाने सो विज्ञान गुण है।४। और मुनिके दान देने योग्य वस्तुनमें लोलुपी नहीं होना। जैसे घर विषै एक-दोय भोजन, अपने रुचिकर बनवाये होंय । ऐसी वस्तु अल्प होय। तो ऐसा नहीं विचार, जो भोजनकी फलानी वस्तु अल्प भई है, हमने अपने वास्तै कराई है। सो मुनीश्वर की देहौं, तो मोकौं नाहीं बचि है । तातै वह वस्तु
नहीं द्यों। और भोजन बहत है सोदै हों। ऐसा विचार नहीं कर सो अलब्ध गुण है। ५! मुनिको भोजन || देते. मान मत्सर क्रोध लोभ करता सर्व तजि, समता भाव सहित, सर्व जीवन ते स्नेह भाव सहित, क्षमा भाव
धारि, भोजन देना । सो क्षमा गुण है।६। उदारता सहित. लोभ भाव रहित. भक्ति करि भरचा, मुनि को भोजन देश। सोयाश!!७! ऐसे कहे जो दातारके सात गुण, सो इन गुण सहित जो यती कुं दान देय, सो उत्तम फल पावें । सो जो इन सात गुण का धारी दाता, यतीश्वर को दान देय, सो नवधा भक्ति करि दान देय हैगाथा-पितगहणं, उचयाण, पदधोणमर्चएव होह पणणामो। मन वय तण अण सुद्धा, एषण सुध्यय भक्त गव सुहदा ॥१३९ ॥
अर्थ-पितगहणं कहिये, प्रतिग्रहण । उचथाणे कहि, ऊंच स्थान। पदधोरां कहिये, पद धोवना। अर्च एव कहिये, अर्चन करना । होहु पशगामी कहिये, प्रणाम करना। मण वय तरा श्रण सुद्धा कहिये, मन, वचन, काय इन तीनोंकी शुद्धता। एषण सुध्यय कहिये, एषणा शुद्धि। भक्त राव सुहदा कहिये, ये नवधा भक्ति सुखदाता हैं। भावार्थ-प्रतिग्रहण, ऊंच स्थान अध्रि-प्रक्षालन, अर्चन प्रणाम, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, और राषरणा शुद्धि। ये नव भक्ति हैं। तहाँ श्रावक, मुनि-भोजन समय, उज्ज्वल वस्त्र धारण करि प्रासुक जलको झारी सहित अपने मन्दिर (घर) के द्वारे, विधि सहित खड़ा होय मुनि आए, उनको पड़गाहना। सो प्रतिग्रहरा नाम भक्ति है। २। जब योगीश्वर ईO समिति करता दातारकी घरभूमि पवित्र करता दाताक थर विर्षे प्रवेश करि भोजनशाला में जाय। तहां ऊंचे आसन 4 विनय सहित स्थापना। सो ऊंचस्थान नाम भक्ति है। तहां मुनिराजके दोऊ चरण-क्रमल कौं, श्रावक अपने दोऊ हाथन ते स्पर्श करि अपने हस्त ते साफ करता, सासक अल्पजल तें पद धौवना सो पद धोवन नाम (अन्ध्रि प्रक्षालन) भक्ति है। ३। और पोधे अष्ट द्रव्य हैं,