________________
तिक्त, कटुक, खारा, दुग्ध, घृतादिक, षटूरस-ये मोग-योग्य वस्तु हैं तथा चन्दन, केशर, कपूर, गन्धादिक अन्तर्जाति सर्व वस्तु। खाद्य, स्वाद्य, लय, पेय इत्यादिक ये सब मोग-योग्य वस्तु जानना और कन्द-मूल आदि बाईस जमक्ष्य, अभोग-योग्य वस्तु हैं, सो ये सब तजने योग्य जानना। ऐसे भोग वस्तु दोय रूप कहीं और स्त्री, वस्त्र, आभषण, चाँदी, स्वर्ग, स्त्र, माणिक, मोती, हीरादि रत्न जाति और देश, नगर, मन्दिर, हस्तीघोटकादि, चौपद तथा दोपद-दासी, दास, सेवक। ऐसे ये चेतन-अचेतन करि दोय मैद रूप उपभोग वस्तु हैं। सो इन भोगोपभोग का प्रमाण राख लेना, सो भोगोपभोग परिमारा शिक्षाव्रत है। सो याक पांच अतिचार कहिये हैं। प्रथम नाम–सचित्त, सचित्तसम्बन्ध, सम्मिश्र, अभिषव और दुःपक्वाहार। इनका अर्थ-तहां सचित्त वस्तु का भोगना, सो सचित्त नाम अतिचार है।। तहां सचित्त ते ढांकी जो वस्तु तथा सचित्त वस्तु उपर बरी होय इत्यादिक वस्तु को सचित्त का संयोग भया होय, सो सचित्त-संयोग है ।२। और सचित्ताचित्त वस्तु का मिलाप सहित भोजन लेना, सो सम्मिश्र अतिचार है । ३। और तहां अनेक प्रकार बलकारी-पुष्टकारी रस का खावना, सो अभिषक नाम अतिचार है। ४ । और जो भोजन, लिये पीछे दुःख कर पचे, ग्लानि करै, डकार करै, सो ऐसे गरिष्ठ भोजन करना, दुःपक्वाहार अतिचार है।५। ऐसे पांच अतिचार रहित होय, सो शुद्ध मोगोपभोग परिमारा नाम शिक्षावत है। सो ये व्रत के थारो जो उत्तम फल के लोभी हैं; सो इन दोषों को टालि, व्रत निर्दोष राखें हैं। इति तीसरा भौगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत । २। आगे अतिथिसंविभाग नाम शिक्षाव्रत कहिये है। तहां तिथि नाम परिग्रह का है। सो जो परिग्रह रहित होय, सो अतिथि है तथा तिथि नाम वच्छिा का है। सो जाके वांच्छा नहीं होय, सो अतिथि है। "मर्दा परिग्रहः"। ऐसा तत्त्वार्थसूत्र का वचन है सो अतिथि के दोय भेद हैं—राक अतिथि तो ऐसा है कि पाप के उदय करि नहीं है अन्न-धन-वस्त्र जाके पास । उदर-पूरण को पर-घर फिरै है, याचे है। तो भी ताके उदर-मात्र
की वाच्छा पूर्ण नहीं हो है। ऐसा महादीन, दरिद्री, अनेक रोगन करि दुःखिया, वृद्ध, बालक, जन्धा, । लूला इत्यादिक ये असहाय, जिनके पास एक वक्त का अन्न नहीं। कोई दया करि देय तब, पेट भरें,
सुखी होय । याका नाम वांछा सहित अतिथि है 1 यह अशरण है, दया करने योग्य है । याका