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देखनेहारेका आवना-जावना तो कछु मी नाहीं। अरु वृथा ही बिना प्रयोजन पाप विर्षे काल लगावै । सो याकों अनर्थदण्ड-पाप होय है। सो अर्थ-पाप ते अनर्थ-पापका फल' विशेष दुखदाई जानना। ऐसा जानि, घत देखना मी तजना योग्य है। तातै चूत देखना' चूतखेलना, घतका व्याज लेना इत्यादिक च तक सर्व कार्य, पापके दाता हैं। हे मव्य । येश्चत, सर्व पापका राजा है। निन्दा-अपयशका समूह है। याकै रमैं निरादर होय है। बत कोई प्रकार भला नाहीं। आगे पारडव-युधिष्ठिर ने द्यूतक्रीड़ा करी। ताके फल राज्य गया। वनवास रहे। दुख पाया। अपयश बधा। औरों ने भी जगत विष प्रगट देखा, जो बतकारकी महिमा नहीं, निन्दा ही हो है। तातें है भव्य हो, तुम अपने विवेक ते विचार देखो। जो दुयत खेल ते यश होय, पुण्य होय, तौ करौ। नहीं तो तत्क्षण हो तो, बहुत कहने करि कहा। ऐसा जानि, धर्मात्मा सम्यादृष्टी श्रावकन को ये जुवाकाव्यसन अतिचार सहित तजना योग्य है। इति दुयत व्यसन । आगे आमिष व्यसन कहिये है-हे भव्य, ये आमिष है सो जीव-हिंसा त तौ उपजे है। फिर मृतक-जीवनका कलेवर है। महा म्लानिका पिंड है। जिसके देखते ही चित्त मुरझाय जाय। और सात धातुनका निषिद्ध मैल है। ताकी खानेहारे किस तरह खांय हैं? हे भव्यो, देखो जो कानका मैल, नाक व मुखका मैल लग जाय तो जल लेय, मिट्टी तें धोय, शुद्ध करें। तो भी घिन नहीं जाय है। सो ये तो मृतक पशुका मल-आमिष खाय हैं। ऐसा मलिन वस्तु, ऊंच-बुद्धि नहीं लेय हैं। जो आमिष खानहारे हिंसक जीव हैं। सो बताइये हैं-सिंह, स्याल, माजरि, सुअर, श्वान, चीता, काक, चील्ह बाज, विषमरा, सर्प, सोगोस इत्यादिक दुष्ट जीव हैं. ते मांस खांय हैं। मनुष्य होय, ऐसी मलिन वस्तु छोवने योग्य भी नाहीं। सो कैसे खाय हैं ? और कदाचित् मनुष्य होय, मांस खाय हैं । तो भील, चांडाल. कसायी, कोली, चमार इत्यादिक नोच कुलके उपजे, अस्पर्श-शुद्ध ही मांस खांय हैं। तिनमैं भी केतेक उज्ज्वल-बुद्धि, पाप तें डरनेहारे, कोमल परिणामी शद्र भी,प्रभुकों मजें हैं। तिलक-छापे करें हैं । ते आमिष नहीं खांय हैं। अशुचि-बुद्धि निर्दयी खांय हैं। सो भी कहा जानें, ऐसो दुर्ग धित वस्तु कैसे खाय हैं ? कैसा है आमिष पिंड, ग्लानिकारी है। जिसकी बिना गंध लिये, देखे हि चित्त दुखी होय, सो खांय कैसे ? सो ताकी तेही जाने। परन्तु ऐसा शनि मांस-पिड खावना, नीच-कुलीका प्रगट चिन्ह है। और जे ऊंचकुलके उपजे क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, थे उत्तम