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लोभ देय नरक विर्षे धरैं हैं। जे ग्राणो इन व्यसनन में फंसे हैं। तिनने अपना मव वृथा किया धर्म छोड़ि || दिया और जे जीव इनक परख व्यसन जानि इन विष रायमान होय प्रवर्ते इनकौं सेवन करें, सो जीव पाप | के निशान हैं। तिस व्यसनी का चलन ही अशुभ होय धर्म क्रिया हीन होय परिणति खोटी होय जिन-आज्ञा रहित होय अभिमानी होय सुबुद्धि जीवन करि निन्ध होय । दरिद्रो अत्र करि दुःखी होय इत्यादिक युग भव दुःख का सहनेहारा ये व्यसनी है। सो विवेको जीवन करि तजिवे योग्य है। या व्यसनी का संग भला नाहीं। अहो भव्य हो ! दीन होय रहना मला है। तातें समता सधैं कोई जीवन की पीड़ा नहीं होय । ऐसा उपदेश सुनि जो जीव व्यसन का सेवनहारा अअन चोर की नाईं निकट संसारी होय। तो ऐसे निकट भव्य जीव तौ व्यसन को बुरे जानें। अपनी निन्दा करते अत्यन्त आलोचना करते उपदेशो का उपकार मान । स्तुति करि व्यसन भाव तजें हैं। अपना भव सफल जानि धर्म विर्षे लागें । सत्संगकी महिमा करें। सत्संग धन्य है जो मोकों व्यसनके पापका भेद बताय संबोधित किया। जैसे काह की कृप पडते राखै । तैसे सत्संग ने मोका नरक पडते को बचाया तथा जैसे कुधातु जो लोहा ताकौं पारस लाग कंचन करें। तैसे ही मोसे पापो व्यसनी लोहे समान कू पाप से छुड़ाय धों किया। इत्यादिक भव्य व्यसनी तो अपना भला जानि सत्संगको स्तुति करै। और जे पापी व्यसनी दीर्घ संसारी हैं ; ते व्यसनकी निन्दा सुनि, आप तुरा मान सत्संग तज। परन्तु सप्त व्यसनकं नहों तजै। ऐसे पापी-व्यसनी कौ, धर्मोपदेश नाही लागे। ये सात व्यसन हो धर्मके घातक हैं। ऐसा जानि उत्तम श्रावक जिन |
आज्ञा प्रमाण व्रतके धारीक, अपने व्रतको रत्ता निमित्त, श सात ही व्यसन अतिचार सहित तजना योग्य है। इन | सप्न व्यसनके अतिचारमें आठ मूल गुणके अतिचार बाईस अभक्ष्य आदि आ गये सो जानना। इत्यादिक सर्व दोष रहित सम्यग्दर्शन व अष्ट मल गुण होय, और रा सात व्यसन व बाईस अभक्ष्यका त्याग सो प्रथम दर्शन
प्रतिमा जानना।। । इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम ग्रन्यके मध्य में, सागर धर्म-एकादश प्रतिमा विर्षे प्रबम दर्शन प्रतिमाके वाईस अभक्ष्य अतिचार
सहित सात व्यसन त्याग, अष्ट मुल गुण सहित कथन करनेवाला बत्तीसवां पव सम्पूर्ण ॥ ३२॥ आगे दूसरी व्रत प्रतिमाका संक्षेप लिखिये हैं। दूसरी व्रत प्रतिमा है ता व्रतके बारह भेद हैं। पांच अणुव्रत,