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मण्डलेश्वर, मण्डलेश्वर इत्यादिक महान् राजा, पृथ्वी नाथ, दया मूर्ति, न्याय मार्गो, जिनके भय से कोई क्रूर ! जीव धर्मकू धर्मो जीवनक सता नहीं सके। मुनि-श्रावकनकों कोई दुष्ट पोड़ा नहीं करि सके। चैत्यालयन का ॥ वन में कोई अविनय नहों करि सके। ऐसा जिनका भय का कोई कुवादी भूठा नय-दृष्टान्त देय सत्य धर्म तें मूळे धर्म की प्रवृत्ति चाहे तो अपने ज्ञान के प्रकाश तें, बुद्धि के बल तैं न्याय-मार्ग करि सर्व जगत् जीवन के कल्याणकू कुधर्म उखाडि सुधर्म प्रवृत्ति राखे, सो पाक्षिक श्रावक है। इनके राज्य में पाप नहीं बधै । ११ दुसरा साधक-जे धर्मात्मा श्रावक जिनकी धर्म साधन करते बहुत काल भया सो इन्द्रिय-भोगनते विरक्त होय, तिनके जीतव्य ते निस्पृह भया, अपना आधु-कर्म नजदीक जान के ये मोक्षाभिलाषी पर-भव सुधारवे कौं सर्व जीवन तें तमा-भाव करि, अरु घर, धन, धान्य कुटुम्बादि स्व-पर जनतें मोह-ममता भाव तजि अपनी कायतें ममत्व छोड़ि, च्यारि प्रकार का आहार त्याग, पञ्च परमेष्ठी का स्मरण करता, तत्त्वन का विचार करता धर्म-ध्यान सहित सन्यास लेय, तिष्ट्या यति ऋषि होय । सो साधक जाति का श्रावक है। तीसरा भेद नैष्ठिक, ताके ग्यारह भेद हैं, सो बताइये है। प्रथम नाम| गाथा-दसण वय सामायो पोसय सचित्त रयण भख त्यागो । यंभारंभ हेय परिगह अणमत उदिट्ट त्याज सागारो ॥ १३७ ॥
अर्थ-दसण वय सामायो कहिये, दर्शन व्रत सामायिक। पोसय सचित्त रयण मल त्यागो कहिये, प्रोषध सचित्त व रात्रि भोजन त्याग। बंभारंभ हेय परिगह कहिये, ब्रह्मचर्य, आरम्म त्याग, परिग्रह त्याग। अगमत्त उदिट्ट त्याज सागारो कहिये, अनुमति त्याग, उद्दिष्ट त्याग-ये ग्यारह भेद नैष्ठिक प्रावक के हैं। भावार्थ-ये ग्यारह प्रकार प्रतिज्ञा पञ्चम गुणस्थान धारी नैष्ठिक श्रावक को हैं। तहां जाके सम्यक्त्व को पच्चीस दोष नाहीं लागें और समव्यसन का त्याग, पञ्च उदम्बर. तीन मकार-इन आठ का त्याग सो अष्ट मूलगुण हैं। सो इनके अतिचार रहित शुद्ध व्रत, सो प्रथम दर्शन-प्रतिज्ञा है। अब इनके अतिचार को बताइये हैं। सो प्रथम सम्यक्त्व के अतिचार कहिये हैं 1 सम्यक्त्व के आठ दोष, मद दोष आठ, अनायतन पट और मूढ़ता तीन-इन पच्चीस के होते सम्यक्त्व मलिन हो है। सो इनका स्वरुप ऊपर कह आये हैं और युत, मांस भक्षण, सुरा पान, वैश्या गमन, शिकार, चोरी और पर-स्त्री सेवन-ये सात व्यसन हैं । सो जाम आत्मा के भाव बहुत एकाग्र होय गमन