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दशा के जाननहारे हैं। तिनकै दोऊ हो दशा के वियोग में दुःख नाहों है। सदैव समता-रस का भोगनहारा धर्मात्मा, सो भले प्रकार जान है कि जो इष्ट अरु अनिष्ट दोऊ हो वस्तु विनाशिक हैं, कर्म के आधीन हैं। अपनी | स्थिति के प्रमाण रहैं हैं। जो मली वस्तु अपने पुण्य के उदय मिलै सो भी अपनी स्थिति प्रमाण रस देय विनश जाय है। स्थिति पूरी भए देव इन्द्र की राखी भी नहीं रहै और अनिष्ट वस्तु का मिलाप पाप के उदय ते होय । सो एकाह की घेरो जाती नाहीं अपनी स्थिति पुरण किए जाय। सो जे भोले मोहो पर-वस्तु को अपनी करि दृढ़ राखनेर गोव हौवे दियोग में हासो होय है और सांची दृष्टि के धारी परकों पर जाननहारे तिनकौं खेद-भाव नाही होय। आगे जैसी परिणति विषय कषाय में सांची होय लागै है, तैसे ही धर्म विषय लागै तौ कहा फल होय ? सो बतावे हैं-- गाथा-जे मण विसय फसायो, जेहो लगाय धम्म कैजाए । तउ लव काल णरंजण, इंदो अहमिन्द सयल मगलाहो ॥११॥
अर्थ-जे मण विसय कसायो कहिये, जे मन विषय-कषाय में लगै। जेहो लगाय धम्मकजाए कहिये, तैसे धरम कारज मैं लगावै । तउ लव काल शरण कहिये, तौ थोरे हो काल में निरजन होय । इन्दो अहमिन्द सयल मगलाहो कहिये, इन्द्र अरु अहमिन्द्र सम्पूर्ण के सुख सहज हो राह में प्राप्त होय। भावार्थ-जीवन की संसार विर्षे अनेक परिणति है। सो अनादि काल का भल्या ये जीव, धर्म के स्वाद कू नहीं जाने। अनन्तकाल का विषय-कषाय मोहित जीव, गति-गति में भ्रमणनेहारा प्राणी, इन्द्रिय-सुख कं बहुत चाहै है। परन्तु जगवासी जीव का चित्त, जैसे—विषय-कषाय में रायमान होय, एकाग्र लाग है। तैसा ही यदि धर्म विर्षे एकचित्त होय लागे, तो अल्पकाल में ही सिद्ध-निरञ्जन-पद पावै। तहां अनन्तकाल सुखी रहै और इन्द्र-पद, अहमिन्द्र-पद जो नव-वेधक, नव-अनुत्तर, पञ्च-पश्चोत्तर-इन कल्पातीत देवन के सुख तौ सहज ही राह में आय. प्राप्त होय हैं। तात विवेकी जीवन को विषय-कषाय तजि धर्म विर्षे लागना योग्य है। आगे रोसा कहैं हैं जो कृपण अपने तन को ठग है| गाथा-किप्पण णिज तण वंचय वंचम सुमपणण जणकतीए मित्तोय | तण दे तण ण दाणो,घम्म रहीयो मित्य काय सम जीयो।११२
अर्थ-किप्पण शिज तण वश्चय कहिये, सूम अपने शरीर को ठग है। वंचय सुयपणस कहिये, अपनी
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