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सोनाना जीव नाना काल अपेक्षा एक सौ बीस प्रकृति बन्ध योग्य हैं। सो ही कहिये है। ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणीय ६, वेदनीय २, मोहनीय २६, आयु ४. गोत्र २ अन्तराय ५ – ए सात कर्म की प्रकृति ५३ भई । नाम-कर्म की वर्ण चतुष्क ४, संस्थान ६. संहनन ६, गति ४ गत्यानुपूर्वी ४, शरीर ५, जाति ५, अंगोपांग ३. चाल २, अगुरु लघु अष्टक ८, दश दुक की २० ऐसे नाम-कर्म की सड़सठ । सर्व मिलि अष्ट-कर्म की एक सौ बीस प्रकृति बन्ध योग्य । सो मनुष्य गति में तौ सर्व का बन्ध है । तातें मनुष्य विषै एकसौ बोस बन्ध योग्य हैं। तिर्यश्च गति में पंचेन्द्रिय के बन्ध योग्य एकसौ सत्तरा है। आहारक दुक की दोय और तीर्थकर एक इन तीन बिना जानना । बेन्द्रिय तैन्द्रिय, चौइन्द्रिय-इन विकलत्रय में बन्ध योग्य प्रकृति एक सौ नौ हैं। वैक्रियिक अष्टक की आठ, आहारक दुक को दोय और तीर्थकर एक-इन ग्यारह बिना विकलत्रय में १०६ का बन्ध है । पश्च स्थावर मैं बन्ध योग्य विकलत्रयवत् एक सौ नव प्रकृति है। विशेष एता जो अग्नि व वायुकायिक इन दोय स्थावरनकें ऊँच गोत्र व मनुष्यायु-इन दोय बिना एक सौ सात प्रकृति का बन्ध है देवन के वैक्रियिक अष्टक की आठ, विकलत्रय की तीन, आहारक दुक की योग, सूक्ष्म, साधारण और इन दिना समुच्चय १०४ का बन्ध है। तहां विशेष राता जी दुजे तैं ऊपरि तीसरे स्वर्ग तैं लगाथ बारहवें स्वर्ग पर्यन्त के देवन एकेन्द्रिय जाति थावर, नाम और आतप इन तीन बिना २०२ का बन्ध है। बारहवें स्वर्ग तैं उपरि के देवनकें विकलत्रय की तीन और उद्योत – इन च्यारि बिना सत्यानवे का बन्ध है। ऐसे देव का बन्ध कह्या । नारकीन के एक सौ बीस में वैक्रियिक अष्टक की आठ, विकलत्रय तीन, स्थावर, एकेन्द्रिय, साधारण, अपर्याप्त, सूक्ष्म, आहारक दुक की दोय, आतप इन उत्रीस बिना समुच्चय २०२ का बन्ध है। विशेष राता जो तोर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध तीसरे नरक ताई है आगे नाहीं । तातें तोजी पृथ्वी तैं नीचे एक सौ प्रकृति का बन्ध है। सातवें नरक में मनुष्यायु बिना निन्यानवें का बन्ध है। ऐसे व्यारि गति विषै यथायोग्य सामान्य बन्ध कह्या विशेष एता जो एक जीव के एकै काल अपेक्षा तीन गति में तौ गुणसठ प्रकृतिन का बन्ध है । तिर्यश्च गति विषै एकै काल तीर्थङ्कर प्रकृति बिना अट्ठावन प्रकृतिन का बन्ध है । इहां प्रश्न – जो तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध तौ मनुष्य मैं हो का । परन्तु यहाँ देव नारकी में भी कह्या सी कैसे बने ? ताका समाधान – जो हे भव्य ! प्रश्न तुम्हारा
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