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अर्थ रज पीलय गैह पावइ कहिये, रज के पेलें तें तेल होय। रजनी रवि कहिये, रात्रि में सूर्य होय । श्री || बिहोंति सभ सपाय कहिये, बालिश्त ते आकाश न। काय धरी यह खपई कहिये, काय के धारी मरे नाही।
| तब हिंसा सुह देय णेमार कहिये, तो निश्चय नै हिंसा में पुण्य होय। भावार्थ रण जो बाल-रेत ताकौं घाणी में पेलें तें तेल निकसै. तो हिंसा में धर्म-फल होय। अरु रात्रि को सूर्य का उद्योत होय, तौ हिंसा में पुण्य होय और अंगुल-बालिश्त करि आकाश नापना होय, तौ हिंसा में धर्म-फल होय और शरीर अवतार का धारो, सदैव शाश्वत रहै, तो हिंसा में पुण्य होय । रौसे ऊपर कहे जे नहीं होने योग्य कार्य, सो ये होंय तौ हिंसा विर्षे पुण्य होय । रोसा जानि धर्म के इच्छुक धर्मो जीव हैं तिनकों, दया-भाव का मार्ग जानना योग्य है। आगे हिंसा में धर्म नाही, रोसा और भी बतावे हैंगाथा-खल पीलय सनेहो, सायर लंघाय पाप मजादो । णक सहते सुर अध दय, तव हिंसा फल देय मह आदा ।। १२८ ॥
अर्थ---खल पीलय सनेहो कहिये, खली के पेले तैल निकसै। सायर लघाय पाल मजादो कहिये, समुद्र अपनी पार को मर्यादा लंधै । एक सुहते कहिये, शुभ कार्य किये नरक होय । सुर अघ दय कहिये, स्वर्ग स्थान पाप फलतें होय। तब हिंसा फल देय सुह आदा कहिये, हे प्रात्मा! तौ हिंसा का फल शुभ होय। भावार्थजैसे मूरख खली को पेल तेल काढ्या चाहे, सो कबहूँ नाहीं निकसे। जो खली पेले तेल निकसै. तो हिंसा में पुण्य होय और समुद्र अपनी मर्यादा को उलंघे. तौ हिंसा में धर्म का फल होय और पाप के करनहारे सुगति जाय सो कदाचित् पाप करनहारे देव होय, तौ हिंसा में पुण्य होय और एण्य के करनहारे स्वर्ग-मोक्ष जांय हैं। सो यदि धर्म किये नरक होय, तौ हिंसा में धर्म लाम होय। रोसे ऊपर कहे स्थान, ते नहीं होने योग्य हैं। तैसे ही हिंसा में शुम नाहीं है। तातै तूं अपना कल्याण चाहै है। तो समता-भाव करि सुखी होयगा। आगे फेरि : हिंसा में धर्म का अभाव बतावे हैं
गाथा—जड़ दब्बो जुव गाणऊ, चेदण दव्वोय होय दिण गाणो । कलहो कय जस होई, तव हिंसा पुण देय गेमाए ॥१२९॥ ४३८
। अर्थ-जड़ दळवो जुव रणाराऊ कहिये, अचेतन द्रव्य ज्ञान सहित होय। चेदण दव्योष होय विश णामो ......... कालिये, सेवन नाश न एति होय। कलहो कय जस होई कहिये, कलह करते यश होय तय हिंसा पुत्र देय