________________
४४१
चित्त पावै। ताकै कोई ते द्वेष-भाव नाहों। कोई कं दुःख नहों वाच्छै। सर्व का हित वाच्छनहारा रोसा | कोमल चित्त पावना, सो दया-भाव का फल है और जाकौं पर-जीव बहुत दुःखी देख. दया नहीं उपजें। | ऐसा कठोर चित्त पावना, सो निर्दय भाव का फल है। ऐसे ऊपर कहे शुभ लक्षण, आरति रहित शुभ भाव, शुद्ध अङ्गोपाङ्ग, कुटुम्ब मोही, कोमल चित्त ये सब शुद्ध सामग्री पावना, सो दया-भाव का फल है 1 आगे
शुद्ध जोपा
और भी कहिये है-
पोय जीय रखय, किप्पा इव जोय हो
गाथा-कम्म हणी शिव रुग्णी, तणो भव पीर वोर षड् कायो । जपणो इव जीय रखय, किया इव जोय होय शिव आदा॥१३॥
अर्थ-काम हणी कहिये, कर्म नाश करनी। शिव करणो कहिये, मोक्ष कारणो । तणी भव गीर कहिये, संसार-जलकों जहाज। वीर षड कायो कहिये, षट काय कों भाई सम। जणगी इव जीव रखय कहिये, माता समान जीव की रक्षा करतहारी। किप्या इस जोय होय शिव आदा कहिये, दया-भाव को ऐसा जानै तो यह आत्मा मोक्ष होय । भावार्थ-धर्म के अनेक अङ्ग हैं। तप, जप, संयम, व्रत, ध्यान, नग्न रहना, बड़े- | बड़े तप करना। पक्ष. मास, वर्ष के अनशन करता महाव्रत, समिति. गुप्ति पालना । इन्द्रियन का जीतना । । भूख-प्यास सहना पश्चाग्रि तपना । शीशप केशन का बधावना । चर्मादिक तें शरीर ढाँकना । वस्त्र का त्याग करना। ऊर्ध्व पांव, अधो शीश झूलना। भूमि वि गड़ि मरना। जीवित हो अग्नि में जरना। पर्वत पात करना । जल प्रवाह लेना । कन्द, मूल, वनस्पति खावना । अत्र तज, दूध-मठा पोवना इत्यादिक अनेक कष्ट मारग हैं सो यह जीव, धर्म के निमित्त अनेक कष्ट खाय है । सो ये कहे जो कष्ट, सो दया-भाव बिना मोक्ष-मार्ग नहीं करें। सर्व वृथा ही जांय हैं। तात जेतेधर्म अङ्ग हैं, तिनमें यह जीव-दया सर्व का मूल है। कैसी है यह दया ? सर्व कर्मन को काटनहारी है। दया-भाव बिना, निर्दयी जीवों के कर्म कटै नाहों फेरि यह दया कैसी है? या बिना सिद्ध पद नहीं होय । कैसा है सिद्ध पद ? जन्म-मरण रहित है । निराकार, निरचन-कर्म अजन रहित है। फेरि कैसा है मोक्ष पद ? देव, इन्द्र, चक्री, धरणेन्द्रादि महान पुरुषों करि पूजने योग्य है। सो ऐसे सिद्ध पदकों यह दया-भावही देय है। दया रहित प्राणीनकौं ऐसा सिद्ध पद होता नहीं। बहुरि कैसी है दया? संसार-समुद्र के दुःखजल, ताहि पारि करनेकौं, जहाज समान है। दया नाव बिना, संसार-सागर तिरचा नहीं जाय है । हिंसा-धर्म है सो
DAAP