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देय धर्म में लगावै। जो प्रजा धर्मात्मा दया-भाव सहित शुद्ध प्रवृत्ति की धारी होय ताकी रक्षा सहित शश्रषा करे। । जैसे—प्रजा धर्म रूप प्रवत सोही कार्य करें। पृथ्वी में शुमाचार बधावै। धर्म क्रिया भला आचार आप करें। ! औरन कौं उपदेश देय पूजा, दान, शील, संयम, तप, व्रत इत्यादिक धर्म को बधावै। पाप कौं मैट। निरन्तर धर्म ।।
सेवन का सोच राखै। संसार भोग विनश्वर जानि विषयन में रत नहीं होय। आगे महान् राजा भरत चक्री आदि बड़े-बड़े पुरुष राज्य सम्पदा छोड़ जिनेश्वरो दोक्षा धार तप करि मोझ गये। तिनके गुणन को कीर्ति करता वैराग्य भावना का अभिलाषी प्रजा को रक्षा करता ऐसे भावन सहित राज्य करें। सो त्रयी नाम दुसरो विद्या है। २। आगे तीसरी वार्ता विद्या है। तहां नोति शास्त्रन तैं जानी है जान की परम्पराय जानैं। सो यश का अर्थी राजा अपनी प्रजा कं पालने को सुखी राखने को है बाच्छा जाकैं। ऐसा सुबुद्धि राजा प्रजा के न्याय अन्याय, सुख दुःख जानि को फैलाये हैं देश नगर में हलकारे स्पो नेत्र जाने। जैसे-नेत्रन से सब देखा जाय तैसे बड़े राजाओं के नेत्र हलकारे हैं। सो तिन संदर-दूर की बात जानी जाय है। सो विवेकी राजा दसों दिशा हलकारे भेजा पृथ्वी की खबर राखै। स्व-चक्र पर-चक्र की होनता अधिकता जानैं। तिन हलकारेन ते योग्य अयोग्य सब जाने । सो अपनी प्रजा कौं दुःखदायी चोर चुगल पाखण्डी अदेखा दुराचारी दीन जोवन कौ सतावनहारा इत्यादिक दुष्ट जीवन को जानि अपने मुल्क देशनै निकास देय और जे धर्मात्मा सज्जन दयावान् सन्तोषी संघमी न्यायी इत्यादिक गुण सहित साधु जन होय तिनको सेवा चाकरी रक्षा करें इत्यादिक हलकारान तै प्रजा की कथा जानै । ऐसी विवेक बढ़ावनहारी यह विद्या जिस राजा के हृदय में वसै ताका यश होय । प्रजा सदैव सुखी रहै। यह तीसरी वार्ता विद्या है । ३। आगे चौथी दण्डनी विद्या है सो यातै विवेकी राजा अपनी न्याय बुद्धि करि अपनी बस्ती में चोर चुगल जो अपनी आज्ञा के प्रतिकूल होय सप्तव्यसन का उपदेशक होय तिनकौं दण्ड देय दुखी करि लोकन को बतलाव कि जो कोई न्याय तजि अन्याय चलैंगा। सो ऐसा दुःखी होय दण्ड पावैगा और बस्ती में जो भले मनुष्य न्यायवान होय तिनको रक्षा करें। ये दण्डनी नाम चौथी विद्या है।४।ऐसी च्यारि विद्या कही। सो महान् कुल के उपजे दोऊ पक्ष जिनके पवित्र होय ऐसे राजकुमारन कों सीखना मङ्गलकारी है। ये सब विद्या, जिस भपति के हृदय में तिष्ठे,
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