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वे धर्म विद्या हैं। तिन सबका स्वरूप विवेको राज-पुत्रन आदि सर्व कुलीनकं सीखना योग्य है। और जिस राजपुत्रकू इन विद्यानका ज्ञान होय सो प्रजाकू सुखी करै, आप यश पावै। ऐसे जानि इन विद्या रूपी गुणनका संग्रह करना योग्य है । इति लौकिक विद्या। प्रागे राजानका इन्द्र जो षटखण्डी चक्रवर्ती ताके पुण्यका माहात्म्य पाय चौदह रत्न व नव निधि ही हैं । तिनके नाम व गुण कहिये हैं। तहां प्रथम स्त्र नाम सुदर्शन चक्र चंड वेग दण्ड चमर चूड़ामणि काकिणी छत्र असि सेनापति बुद्धिसागर पुरोहित शिल्पी गृहपति विजयगरि हस्ती घोटक और स्त्री ये चौदह रत्न हैं। एक-एक रनकी हजार-हजार देव सेवा कर हैं। अब इन रत्नन से कहा-कहा कार्य होय सो कहिये हैं। तहाँ चक्रो, जिस आज्ञा करे चाहै। सा चक्रके रक्षक देव जाय चक्रीकी आज्ञा कहैं । यह चक्र रत्नका कार्य है!। विजयार्द्ध पर्वत की गुफाके कपाट सेनापति तोड़े है, सो गदा रत्न है तारे तोड़े है। सो ये गदाका कार्य है।२। जहां राहमें नदी-सरोवरका बड़ा गहन जल आने है। तब चरम रत्र जलमें विधाय दीजिये। सो ताके प्रसाद करि सर्व जल धरती समानि होय। तापै तँ चक्रोका सर्व कटक पार होय । ये चमर रनका गुण है। ३। और विजयार्द्धकी गुफा पचास योजन लम्बी है। तामें यहा अंधकार में सो चक्री कैसे धसै है। तहां चूड़ामणि रसके उद्योत करि, सूर्य-प्रकाशको नाई उचात, गुफा पार ही है। यं चूड़ामणि रत्नका गुरा है। ४ । और काकिणी रत्न ते चक्रो अपना नाम लिखे है । वृषभाचल पर्वत पै, जब ठाम नहीं मिले है। तब इस काकिणी रत्न तें, ओर चक्रीका नाम मेटि, अपना नाम लिखे है। और याकै प्रकाश से भी बारह योजन गुफामें प्रकाश होय है। ये काकिणों रत्नका गुरा है । ५। और चक्कीके कटक पर मेघ बरसै, तो छत्र रत्नके विस्तार करि जलकी वाधा मेटै. सब सैन्या छाया लेय है। ये छत्र रत्नका गुण है।६। और जाके तेज ते वैरी डरें, सर्व शत्रु जाते जीतिए, ऐसा असि रत्नका गुन है। ७। ये सात रत्न तो अचेतन कहे। और सब प्रार्य
म्लेच्छ खण्डके राजान कुंजीति, सर्व कलाय चक्रीके चरणमें नमाय सेवा करावे, ए सेनापतिका गुण | है।८। और पुरोहित ऐसी सलाह देय जातै प्रजा सुखी होय, वैरी वश होय, ये पुरोहित रत्नका गुण ४१.| है1९1 और चक्रीकी आज्ञा ते तत्क्षण, मनदांच्छित, अनेक शोभा सहित, बहुत खण्डके सुन्दर महल
! वनावै, सो ये शिल्पी रन है। १०1 और चक्रीके घरका सर्व कारबार, बारम्भ कार्यकी सावधानी राजै.
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