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मोही जीवन को सुख्ख को प्राभास सी बताय, मोहित करें हैं। बाकी सुख रहित है। सप्त धातुमयो झोणित, पक्व रुधिर, अस्थि, रोम, तिन करि स्थान-स्थान पूरित है। ऊपर चरम तें लिपटा है। विनाशीक है। इत्यादिक अनेक अवगुरा करि भरा है। तातें हे भव्य ! ऐसा विचार, जो ये शरीर विनश्वर है। सो याके जासरे जो
इन्द्रिय जनित सुख, सो ये कैसे स्थिरीभूत रहेंगे? और है भव्य, देख । शरीर तो ऐसा है, अरु तूं इस शरीर में | बैठा है। बहुत काल का या तन के मोह करि इसमें बंध्या है। तातें तूं विषयन से उदासीन भया है। सो हे
भव्यात्मा! ऐसा हो तू इस शरीर तें भी उदास होऊ। ज्यों तेरी अभिलाषा पूर्ण होय। क्योंकि ये शरीर बिनाशिक है। तात जब जेते याकी स्थिति है तेते तू यातें दीक्षा अङ्गीकार कर ऊत्कृष्ट दया-धर्म पाल । कौर मोक्षजा। क्योंकि जो ना-यावर की सर्व प्रकार दया, इस गृहस्थावस्थामें तो पलें नाहीं। काहे ते. जो इस परिग्रहके संघोग तै उत्कृष्ट दया पलती नाहीं। लंगोट मात्र परिग्रह होय, तो भी सम्पूर्ण दया नाहीं पले. तो इस बहुत परिग्रहमें कैसे पल ? तातें हे भव्यात्मा, सर्व प्रकार स-स्थावर जीवनको दया, महाव्रत भये पलै। तातें
अब त भले प्रकार महाव्रत अइनकार कर। समता भाव धारि, शुभ भाव धारि। स-स्थावर जीवनकी रक्षाके | निमित सर्व जीवन ते क्षमा भाव करि के, सर्व अभय दान देय । तब त सर्व दया का धारी भया जातें अब तेरे
नूतन कर्मका बन्ध होयगा नाहीं। और आगे तैने अज्ञानावस्थामें इन्द्रिय और शरीरके पोषवे कू हिंसा करि कर्म को बांधे थे, सो याही शरीर से नानाप्रकार तप करकै. पिछले कर्मनका नाश करि। सर्व कर्मका नाश भये, तू मोक्ष सुख पावेगा। सो वह मोक्ष-सुख अविनाशी है, अखरड है अनन्त है। ये सुख भये पीछे जाता नाहीं।। हे भव्य यहां तेरी अभिलाषा पूरी होयगो। ऐसे आचार्य ने कह्या तब शिष्य गुरुको माझा सुनि महा विनय ते । उल्लास करि रोसा विचारता भया। जो आजका दिन धन्य है। आजि मोकों गुरु ने ऐसा इलाज बताया जा करि मेरे पूरव किये पापका नाश होयगा। और अनन्त सुखका स्थान सर्व कर्म रहित निरंजन पद केवलज्ञान सहित सिद्ध पदकी प्राप्ति होयगी। सो अब तौ श्री गुरुके प्रसाद करि मैं मोक्षको पाऊंगा। सो ये उपकार गुरुनका है। ये गुरु वांच्छित सुख देने कू कल्पवृत्त समान हैं। परन्तु कल्पवृक्ष तो एक स्थान ही स्थिरीमत रहै। यायें कोई चल करि आवै तौ फल पावै। घर बैठे देने नाही जाय है। और तामें भी यह भोजन-भषणादि