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सो ही वस्तु देवादिक की नाई तुरन्त मिलै, सो दया-भाव का फल है और दया बिना ये जीव तृण जो घास, सो | भी पेट भर नहीं भोगवे है। सदैव अन्न व तन करि बहत दुःखी होय, सो दया रहित माव का माहात्म्य है और
देवन के नाना प्रकार भोग, असंख्यात द्वीप-समुद्रन मैं गमन, नन्दीश्वर, कुण्डलगिरि, रुचिकगिरि इन द्वीपन में भगवान के मन्दिर हैं तिनको यात्रा का करना, ये शुभ फल उपावना पौर असंख्यात देव-देवी प्राज्ञामान, अनेक देवांगना के समूह तिनका आयु पर्यन्त सुख, सो दया-भाव का फल है और चकी के चौदह रत्र, नव निधि, छियानवे हजार स्त्रियां, षट् खण्ड का राज्य इत्यादिक सुख सो भी दया-भाव का फल है और ऊपर कहे जे भले फल, दीर्घ आयु जगत् यश, निरोग तन, वोच्छित भोग, देव सुख, चक्री सुख-ये सर्व दया-भाव का फल जानना। आगे और भी दया-भाव का फल कहिये हैगाथा-सुर तरु चिन्ता रयणो, काम घेयोय पास पासाणऊ । चित्ता लता सुसंगो, मै सहु किप्पाय भाव फल आदा ॥१३१॥
अर्थ सुर तरु कहिये, कल्पवृत्त । चिंता रयणो कहिये, चिन्तामणि रतन । काम धेयोय कहिये, कामधेनु । पास पासाराऊ कहिये, पारस पाषाण । चित्ता लता कहिये, चित्राबेलि । सुसंगो कहिये, सत्संग। ये सहु किप्पाय भाव फल आदा कहिये, हे प्रात्मा! ये सब दया-भाव का फल है। भावार्थ-दश प्रकार कल्पवृक्ष कर दिये जो उत्तम भौग, सो दया-भाव का फल है और मन चिन्तै भोग सुख का देनेहारा चिन्तामणि रत्न का मिलना, सो कृपा-भाव का फल है और वांच्छित सुख को देनहारी कामधेनु गाय का मिलना, यह भी दया-भाव का माहात्म्य है और कुधातुकों सुवर्ण करनहारा जो पारस-पाषाण सम्पदा सागर ताका मिलना, सो भी दया-भाव का फल है और अल्प वस्तु को अटूट करनेहारो चित्राबेलि नामक वनस्पति ताका पावना, ये भी दया-भाव का फल है और पाप के उद्य, निर्दयो-भावन के फल करि, अनन्तकाल कुसंग विर्ष गमन होता पाया। सो ताके सम्बन्ध नै त्रस स्थावरन की अनेक पर्याय धरि दुःख विर्षे डूबा । सो अदया का फल है। जब जीव का संसार निकट होय, तब याकों सत्संग का मिलाप होय है, सो सत्संग का मिलना भी दया-भाव का फल है। ऐसे ऊपर कहे सुर तरु, चिन्तामणि, कामधेनु, पारस, चित्राबेलि, सत्संग-ये तीन जगत् में उत्कृष्ट वस्तु हैं । सो दया-भाव के फल से मिले हैं। ऐसा जानि विवेको पुरुषन कों पर-जीवन की रक्षा रूप भाव रखना योग्य है। आगे और
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