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रसना के रावनेहारे भोजन तें सुखी, रसना कं अरति उपजावनेहारे भोजन-रस मिले दुःखी, रोसे भावन ते जीव ।। अशुभ-कर्म का आस्रव करें। याका नाम ग्यारहवीं दर्शन किया है। १। आगे स्पर्शन क्रिया कहिये है। तहां जो जीव अपने काय के स्पर्शने कू कोमल शय्या के निमित्त, साँचत कूल-बाड़ी तिनको शय्या रचना करै। तामें शयन करि-लोट, आनन्द मनावें। पाप का भय नाही, दया का विचार नाही, हिंसा का तरस नाही, अपनी इन्द्रिय पोषी जाय सो करना तथा योग्य-अयोग्य कुल नहीं विचारें। मावै स्पर्शवे योग्य होऊ, भावे नोच अस्पर्शवे योग्य होऊ, जाका तन सुन्दर होय कोमल होय, सो स्पर्शन इन्द्रिय का भोगनेहारा ताकौं स्पर्श है। नीच-ऊँच नहीं विचारें। सो बारहवों स्पर्शन क्रिया है। २२ आगे प्रात्ययिनी क्रिया कहिये है। जहां पाप करने के कारण नाना प्रकार शस्त्र, तोर, गोली, छुरी, कटारी, तरवार जाल, पीजरा, फौसि, फन्दा, चेप, कुप इत्यादिक हिंसा के कारण शस्त्र तिनकी अत्यन्त चतुराई बनावने की जानौं होय । सो रोसे अद्भुत शस्त्र बनावे, तैसे और कोई ते नहीं बनें। ऐसे अपूरव दुःख के कारण शस्त्रादि करने की कला-चतुराई, सो महाअशुभ-कर्म का आसव करे। याका नाम प्रात्ययिनी क्रिया है।२३। आगे समन्तानुपातनी क्रिया कहिये है। जो गृहस्थ के मन्दिर प्रसूत के स्थान हैं। ये भोगी जीवन के स्पर्श करने के हैं। जहां सराग क्रीड़ा सदैव होय। सो ऐसे स्थान त्यागीन के रहवे के नाहीं। ये सराग स्थान त्यागीन को योग्य नाही, अयोग्य हैं, भय के कारण हैं। तातै जो यति आदि संयमी, इन गृहस्थन के घर में आर्य, तौ महासावधान, प्रमाद रहित, वीतराग दशा सहित, भोजन निमित्त आवै। सो जेते काल सराग नहीं होंय, दोष टालि भोजन लेंय। सो जाते तथा आवते, संयमी अपने तन के श्लेषमादि मल-मत्र, प्रमाद के योग ते कदाचित् गृहस्थी के घर विर्षे ना। तो ऐसे प्रमाद-भावन ते अशुभ आसव करें। याका नाम समन्तानुपातनी क्रिया है।२४। आगे अनाभोग क्रिया कहिये है। जहां बिना देखे वस्तु को धरती पे धरना, बिना देखे धरती उठाना। सो यति तौ कमण्डलु, पौधे, तन इत्यादिक धरै सो बिना शौधे धरती, बिना पीछी तै पूर्वे, धरै तो अशुभ आस्रव करें हैं और श्रावक भी अनेक वस्तु धरना-उठावना बिना देखे, प्रमाद सहित करें, तो अशुभ आसव करें। याका नाम अनाभोग क्रिया है। २५। आगे स्वहस्त क्रिया कहिये है। तहाँ जे दुराचारी, दुष्ट स्वभाव का धरनहारा, महापापी, अपने हाथ से पाप का कार्य करें। जो ऐसा निषिद्ध खोटा कार्य और