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जैसे-आप तौ धन का लोभी तथा मान-बड़ाई के अर्थ मिथ्या देव-गुरु की सेवा करै। जो मोकं धन देय मोकू पुत्र, हाथी, घोटक देय इत्यादिक वस्तु के लोभको मिथ्या-मार्ग सेवन करै तथा और भोले अज्ञानी जीवनकं उपदेश देय कुदेवादिक के अतिशयकों कहै कि ये देव प्रत्यक्ष वाच्छित देय है। हमने इनकी सेवा करी सो हमें ऐसी वांच्छित वस्तु देय हमारो वाच्छा पूरी करी इत्यादिक अतिशय जानि देवादिकळू आप सेवना औरनकू उपदेशना। सो ऐसे भावन से जीव संसार दुःख देनहारे पाप-कर्म ताका आसव करें हैं। याका नाम चौबीसवीं मिध्यादर्शन किया है । २४ जागे अप्रत्याख्यान क्रिया कहिय है। सो जे जीव अज्ञानता के योग तैं तथा परिशामन की करता ते सर्व हो पाप-कार्य करें कोई पाप का त्याग नाही ते मूल केई तो ऐसा कहैं जो हम तौ भोले हैं। हमकौं पाप नहीं लागैजो समझ हैं, ताकौ पाप भी लागे है। सो हम तौ कछु समझते नाही जो पाप कला झोय है एकास कमाव: और ई जीव कहैं हैं कि जो हे भाई! पाप-पुण्य तो है ही नाहीं। तात भय काहे का ? निःशङ्क होय भोग सुख करना। केई प्राणी कहैं हैं। अरे देख लेहैं जब मरेंगे तब। हाल तौ अपनी इच्छा होय सो करौं। मरती बार धर्म लय लेहैं। केई कहैं हैं कि जो तुम चाहो सो करौं पाप होय तौ याका फल हमकं लागै। इन क्रियान ते नरक होय तो हमें होऊ । हे भाई! यहां ही वांच्छित नहीं मिले तो नरक है और यहां ही सुख मिले तो स्वर्ग है। तात सुख तैं रहौ। हाल ही छते सुख काहे कौ तजौ हौ ? इत्यादि स्वेच्छाचारी होय सर्व पाप करें। योग्य-अयोग्य का कळू विचार नाहीं। कोई पाप का त्याग नाहों करें। ऐसे भावन के धारी अशुभ आस्रव करें। याका नाम पच्चीसवीं अप्रत्याख्यान क्रिया है। २५। इति । पञ्चोस क्रिया आसव की कहीं।
आगे राजा श्रेणिक ने श्री गौतम स्वामी नै प्रश्न किये थे तथा तीर्थकर को माता ते देवाङ्गना ने प्रश्न किये थे तथा और अनेक शास्त्रन में धर्मो-जीवन के प्रश्न प्रमाण यहां पुण्य-पाप का फल प्रगट जानवेकू शिष्यन की प्रश्नमाला लिखिये है। तहां शिष्य गुरु के पास विनय सहित होय पुण्य-पाप के फल प्रगट जाननेक प्रश्रमाला की जो पति सो पूछे है । हे गुरु-देवजी ! यह जीव अन्धा कौन पाप तें होय । तब गुरु कही-जिन जीवन ने अन्य भव विषय अन्ध जीवन के नेत्र दुःखाये होय, पर के नेत्र फोड़े होय। पर की आँख दुःखती देख सुखो भया होय ।
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