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तिनकी स्तुति करो होय तथा धर्म-शाखा की आप लिखे तथा घर-धन वरच के लिजाय धर्मात्मा-जीवन के पठन-पाठनकौं दिये होथ । तिन शास्वन के उपकरण जो पूठा-बंधना उत्तम कराये होय तथा शास्त्राभ्यास करने ।
की बहुत अमिलाषा रहो होय तथा अन्य विद्या अभिलाषी भव्य जीवन की धर्म-शास्त्र का ज्ञान कराया होय - | इत्यादिक पुरय-भावन तै पण्डित होय ।२६। और फिर शिष्य पूछी। हे नाथ ! है तपोधन ! यह जीव मरख कौन पाप ते उपजे है ? तब गुरु कही-जिन जीवन नै पण्डितन को हाँसि करी होय तथा धर्म-शास्त्र के सनवे में - अरुचि भाव किये होंश तथा धर्म-शास्त्र चराये होंय तथा तिनके बन्धन-पूठे चुराये होंय तथा धर्मार्थी पण्डित ते द्वेष-भाव किये होंय इत्यादिक पापन ते मूरख होय ।३०। बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो! यह जीव पराधीन कौन पापों से होय। तब गुरु कही-हे भव्य ! जिन जीवन नै पर-मव| में पर-जीवनकों बन्दी में राखे होय तथा अन्य जीवनकू तुच्छ धन देय अपने वशीभूत राखे होय तथा कर्जादिक के आपने करि निर्धन जीवनकुं रोके होंय तिनकौं तुच्छ-अल्प अन्न-जल देय अपने वश राखे होंय तथा बलात्कार-जोरावरी करि
पर-जीवनकौं अपने आधीन राखे होंय तथा पराधीन जीवन की हाँ सि करी होय तथा पशून कौ राखि. तण-जल | देने में प्रमादी रह्या होय इत्यादिक पापन तैं पराधीन होय।३। बहुरि शिष्य पूछी। हे प्रभो। यह जीव स्वाधीन
कौन पुण्यतै होय ? तब गुरु कहा—जिन जीवननें पर-भव में अन्य को खान-पान देय कुटुम्ब सहित तिनकी स्थिरता करी होय तथा दीन जीवन को खान-पान देय, साताकारी वचन कहि, तिनकौं निराकुल किये होय तथा पराधीन जीव देखि ताकी अनुकम्पा उपजी होय। पर-जीवन • स्वाधीन-सुखी देख. आप साता पाई होय इत्यादिक पुण्य तें स्वाधीन होय है । ३२ । बहुरि शिष्य प्रश्न पूछी। हे गुरो! यह जीव कुरूप किस पाप त होय ? तब गुरु कही-भो भव्यात्मा! जिन जीवन कौं पर-भव में पराय रूप की महिमा नहीं सुनाई होय तथा केई पाप-उदय तें जो रूप रहित मया होय, तिन जीवन के तन की ग्लानि करी होय, सो जीव कुरूप होय तथा कुरुप मनुष्य देखि, ताकी हाँ सि करी होय तथा पराया भला रूप देख ताकी दोष लगाया होय तथा पराये भले रूपकुं विभूति-धूल-कर्दमादि लगाय, विपरीत करि डारथा होय इत्यादिक भावन तैं कुरुप होय।३३। बहुरि शिष्य पूछी। हे ज्ञानमति! ये जीव रूपवान कौन पुण्य तें होय ? तब गुरुकही-हैं वत्स ! जिन जीवन पर-मव
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