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| शीत । ससि तप करई कहिये, चन्द्रमा तपति करें। तव हिंसा पुण्य देय कहिये, तो हिंसा पुण्य देव ।। । भो आदा कहिये, हे आत्मा ! भावार्थ जल विर्षे जान कबहूँ नहीं होय। तैसे ही जीव हिंसा विर्षे पुण्य का
फल कबहूँ नहीं होय और कठोर भूमि विर्षे कमल कदाचित् न होय । तैसे ही हिंसा में धर्म-फल नहीं और जल बिलोए घृत कबहूँ न होय । तेसे ही प्राणी घात में पुरुष नाहों और तुष के कूटे अत्र नहीं निकसे । तसे ही जीव घात ते पुण्य नाही होय और सूरज के उदय होते शीत नहीं होय । तैसे ही जीव घात किये धर्म नाहीं और चन्द्रमा के उदय होते, आताप नहीं होय । तैसे ही हिंसा विर्षे पुण्य कदाचित नाहीं ऐसे कहे जो ऊपर एते नहीं होने योग्य ना.11 की जो घातहिंसा होय है, अ धर्म कबहूँ नहीं होय । सो हे भव्यात्मा ! तूं भी पर-भव सुधारने के निमित्त, रोसा श्रद्धान दृढ़ करि। कि जो जीव घात विर्षे कोई प्रकार पुण्य नाहीं। ऐसा श्रद्धान गोकू भव-भव विर्षे सुखकारी होयगा। ऐसा जानि, अपने समान सर्व जीवकू जानि, तिनकी दया-भाव सहित रहना योग्य है । आगे पुनि हिंसा विर्षे पुण्य का अभाव बतावे हैंगापा--बह मुह ममि सुत वंझय,गणकासुत जनक सिथ अवतारो। स: सुचि सूम उदारक,तच जीव हिंसोय देय पुण आदा॥१२२॥
अर्थ.....अह मुह अमि कहिये, सर्प के मुख में अमृत । सुत वमय कहिये, बन्ध्या के सुत । गणका सुत जनक कहिये, वैश्या के पुत्र का पिता । सिध अवतारी कहिये, मोक्ष मये पीछे जीव का अवतार । सठ सुचि कहिये, मर्च के शौच । सम उदारऊ कहिये, सूम का मन उदार । तब जीव हिंसीय देय पुरा आदा कहिये, हे आत्मा ! तब जीव हिंसा में पुण्य होय । भावार्थ महाभयानक काल रूप सर्प के मुख में अमृत होय, तो जीव हिंसा में पुण्य-फल होय और बांझ के पुत्र होता नहीं। सो बाँझ के पुत्र होय, तो प्राणी बंध में पुण्य होय और वेश्या के पुत्र के पिता होता नाही, तैसे ही जन्तु-वध में हिंसा होय, तहाँ धर्म नाहीं और शुद्ध जीव कर्म नाश सिद्ध होय, तिस मोक्ष जीव का संसार में अवतार नाहीं। तैसे ही जीव हिंसा में पराय नाहीं और मूर्ख के शौच नाहीं होय, तैसे ही हिंसा में पुण्य का फल नहीं होय और सूम शरीर देय, परन्तु दानकं एक | दाम नहीं देय । सो या सूम का चित्त उदार होय, तौ हिंसा में पुण्य-फल होय । ऐसे ऊपर कहे कारण, सौ
कबहूँ नहीं होय । तैसे ही धर्मात्मा तूं ऐसा जानि। जहां जीव घात होय, तहाँ पुण्य-फल नहीं होय। तातें
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