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होय ॥७८॥ बहुरि शिष्य पूछो। हे नाथ! यह जाव कौन पाप तें बहुत जीवन का दास होय ? तब गुरु कहीजिन जीवन में पर-भव में अन्य जीवन कौं भय देय, तिन तैं गारि कराईं होय तथा सेवक राखि, चाकरो कराय कछू दिया नाहीं होय तथा सेवकन कौं रुजगार हेतु मेले राखे हॉय तथा पर-जीवन कौं अपराधी देख, सुख पाया होय इत्यादिक पाप भावन तैं बहुत का दास होय । ७६ । बहुरि शिष्य पूछी - हे गुरो ! यह नपुंसकलिङ्गी का तैं होय ? तब गुरु कही जाने पर भव में पुरुष को नारी का आकार बनाय, सुख पाया होय तथा कोई नर स्त्री का रूप बनाय लोकन को मोह उपजावै था सो ता रूप देख, आप हर्ष मान्या होय तथा पुंवन यहाँ से करते देख तिनकी चेष्टा आपकौं प्यारो लागी होय तथा अन्य जीवन कूं नपुंसक, जोरी तैं कर डारचा होय तथा नपुंसक का संग भला लागा होय तथा नपुंसक मनुष्य कैसी चेष्टा करने की, आपके अभिलाषा भई होय तथा पर- स्त्री व पर-पुरुषन के बीच आप द्वत हीय, तिनका शील खण्डन कराया होय तथा एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय-ये नपुंसक वेदी हैं तिनकी हिंसा करते करुणा नहीं भई निरदयो रह्या होय इत्यादिक पाप चेष्टा तैं जोव नपुंसक होय तथा स्थावर, विकलत्रय होय । ८० । बहुरि शिष्य पूछो। हे ज्ञान सरोवर गुरो ! यह जीव की स्त्री पर्याय, कौन कर्म तैं होय ? तब गुरु कही – जिसने पर-भव में स्त्रीन का संग भला जानि, तिनमें स्त्री कैसी चेष्टा करि सुख माना होय ? तथा अपनी चेष्टा औरन कौं स्त्री की-सी बताय, औरन क वशीभूत किये होंय तथा स्त्रीन मैं मोहित बहुत रह्या होय तथा पर-भव में आप पुरुष था, सो नारी का रूप बनाय, औरनकों मोह उपजाया होय इत्यादिक कुचेष्टा तैं स्त्री पर्याय होय || बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरो ! यह जीव एकेन्द्रिय स्थावर किस पाप तैं होय ? तब गुरु कही — जो पर भव में वीतराग देव-धर्म-गुरु की निन्दा करि, द्वेष-भाव करि, सुखी भया होय तथा देव-गुरु-धर्म की व धर्मात्मा जीवन की, कुसंग के दुर्बुद्धि जीवन का निमित्त पाय, निन्दा करी होय । ते जीव साधारण वनस्पति व निगोदिया होंय तथा जानें पर भव में वृत्त छेदे होंय तथा अनेक वनस्पति खोदी, छेदी, छोली होंय तथा बहुत भूमि खोदी होय तथा जल डाल्या होय तथा अग्नि प्रजालीबुझाई जिससे पवनकाय के जीव घातै होय इत्यादिक पश्च स्थावरन की दया रहित प्रवृत्था होय तथा औरनको
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